1. The mind is chiefly spoken of as of two kinds, pure and impure. The impure mind is that which is possessed of desire, and the pure is that which is devoid of desire.
मन के दो प्रकार कहे गये हैं, शुद्ध मन और अशुद्ध मन । जिसमें इच्छाओं, कामनाओं के संकल्प उत्पन्न होते हैं,वह अशुद्ध मन है और जिसमें इन समस्त इच्छाओं का सर्वथा अभाव हो गया है,वही शुद्ध मन है॥१॥
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥२॥
2. It is indeed the mind that is the cause of men’s bondage and liberation. The mind that is attached to sense-objects leads to bondage, while dissociated from sense-objects it tends to lead to liberation. So they think.
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है॥२॥
यतो निर्विषयस्यास्य मनसो मुक्तिरिष्यते । अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा॥ निरस्तविषयासङ्गं संनिरुद्धं मनो हृदि । यदाऽऽयात्यात्मनो भावं तदा तत्परमं पदम्॥३-४॥
3-4. Since liberation is predicated of the mind devoid of desire for sense-objects, therefore, the mind should always be made free of such desire, by the seeker after liberation. When the mind, with its attachment for sense-objects annihilated, is fully controlled within the heart and thus realises its own essence, then that Supreme State (is gained).
विषय-भोगों के संकल्प से रहित होने पर ही इस मन का विलय होता है। अतः मुक्ति की इच्छा रखने वाला साधक अपने मन को सदा ही विषयों से दूर रखे। इसके अनन्तर जब मन से विषयों की आसक्ति निकल जाती है तथा वह हृदय में स्थिर होकर उन्मनी भाव को प्राप्त हो जाता है, तब वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है॥३-४॥
तावदेव निरोद्धव्यं यावधृदि गतं क्षयम् । एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषो न्यायश्च विस्तरः॥५॥
5. The mind should be controlled to that extent in which it gets merged in the heart. This is Jnana (realisation) and this is Dhyana (meditation) also, all else is argumentation and verbiage.
मनुष्य को अपना मन तभी तक रोकने का प्रयास करना चाहिए, जब तक कि वह हृदय में विलीन नहीं हो जाता। मन का हृदय में लीन हो जाना ही ज्ञान और मुक्ति है, इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी है, वह सब ग्रन्थ का मात्र विस्तार ही है॥५॥
नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च । पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥६॥
6. (The Supreme State) is neither to be thought of (as being something external and pleasing to the mind), nor unworthy to be thought of (as something unpleasant to the mind); nor is It to be thought of (as being of the form of sense-pleasure), but to be thought of (as the essence of the ever-manifest, eternal, supreme Bliss Itself); that Brahman which is free from all partiality is attained in that state.
जब चिन्तनीय और अचिन्तनीय का उस (साधक) के समक्ष कोई अन्तर न रह जाए तथा दोनों में से किसी के प्रति भी मन का पक्षपात भी न रह जाए , तब साधक ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है॥६॥
स्वरेण संधयेद्योगमस्वरं भावयेत्परम् । अस्वरेणानुभावेन नाभावो भाव इष्यते॥७॥
7. One should duly practise concentration on Om (first) through the means of its letters, then meditate on Om without regard to its letters. Finally on the realisation with this latter form of meditation on Om, the idea of the non-entity is attained as entity.
(साधक को) स्वर अर्थात् प्रणव के द्वारा व्यक्त ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए तथा इसके पश्चात् । अस्वर द्वारा (प्रणव से अतीत) अव्यक्त ब्रह्म का चिन्तन करे। प्रणवातीत उस श्रेष्ठ, परब्रह्म की प्राप्ति भावना के माध्यम से भाव-रूप में होती है, अभाव रूप में नहीं॥७॥
तदेव निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम् । तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा ब्रह्म सम्पद्यते ध्रुवम्॥८॥
8. That alone is Brahman, without component parts, without doubt and without taint. Realising “I am that Brahman” one becomes the immutable Brahman.
वह ब्रह्म कलाओं से रहित (एक रस-प्राणादि कलाओं से ऊपर), निर्विकल्प एवं निरञ्जन अर्थात् माया और मल से रहित है।'वह ब्रह्म मैं ही हूँ', इस प्रकार जान करके मनुष्य निश्चित ही ब्रह्ममय हो जाता है॥८॥
निर्विकल्पमनन्तं च हेतुदृष्टान्तवर्जितम् । अप्रमेयमनादिं च यज्ज्ञात्वा मुच्यते बुधः॥९॥
9. (Brahman is) without doubt, endless, beyond reason and analogy, beyond all proofs and causeless knowing which the wise one becomes free.
निर्विकल्प, अन्तरहित (अनन्त), हेतु और दृष्टान्त से शून्य, प्रपञ्च से रहित, अनादि, परम कल्याणमय परब्रह्म को जानकर विद्वान् पुरुष स्वयमेव मुक्त हो जाता है॥९॥
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥१०॥
10. The highest Truth is that (pure consciousness) which realises, “There is neither control of the mind, nor its coming into play”, “Neither am I bound, nor am I a worshipper, neither am I a seeker after liberation, nor one-who has attained liberation”.
न निरोध (प्रलय) है, न उत्पत्ति है, न बन्धन है और न ही (मोक्ष) साधकता है, न मुक्ति की इच्छा है। और न ही मुक्ति है। इस तरह का निश्चय होना ही परमार्थ बोध अर्थात् वास्तविक ज्ञान है॥१०॥
एक एवात्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु । स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते॥११॥
11. Verily the Atman should be known as being the same in Its states of wakefulness, dreaming, and dreamless sleep. For him who has transcended the three states there is no more rebirth.
शरीर की इन तीनों जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में एक ही आत्मतत्त्व को सम्बन्ध मानना चाहिए। जो भी व्यक्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो गया है,उस व्यक्ति का दूसरा जन्म फिर नहीं होता॥११॥
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्॥१२॥
12. Being the one, the universal Soul is present in all beings. Though one, It is seen as many, like the moon in the water.
समस्त भूत प्राणियों का एक ही अन्तर्यामी हर एक प्राणी के अन्त:करण में विद्यमान है। अलग-अलग जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा की तरह वही एक, अनेक रूपों में दिखाई देता है॥१२॥
घटसंवृतमाकाशं नीयमानो घटे यथा । घटो नीयेत नाकाशः तद्वज्जीवो नभोपमः॥१३॥
13. Just as it is the jar which being removed (from one place to another) changes places and not the Akasa enclosed in the jar – so is the Jiva which resembles the Akasa.
घट (घड़े) में आकाश तत्त्व पूर्णरूप से विद्यमान है; किन्तु जिस प्रकार घड़े के क्षत-विक्षत होने पर मात्र घड़े का ही विनाश होता है, उसमें भरे हुए आकाश तत्त्व का नहीं, उसी प्रकार शरीर धारण करने वाला जीव भी आकाश के ही सदृश है। शरीर के विनष्ट होने से आत्मा का विनाश नहीं होता, वह शाश्वत है॥१३॥
घटवद्विविधाकारं भिद्यमानं पुनः पुनः । तद्भेदे न च जानाति स जानाति च नित्यशः॥१४॥
14. When various forms like the jar are broken again and again the Akasa does not know them to be broken, but He knows perfectly.
समस्त जीव-प्राणियों का भिन्न-भिन्न शरीर, घट के ही समान है, जो बार-बार टूटता-फूटता या विनाश को प्राप्त होता रहता है। यह विनाश को प्राप्त होने वाला जड़ शरीर अपने अन्त:करण में विद्यमान चिन्मय परब्रह्म को नहीं जानता; किन्तु वह सभी का साक्षी परमात्मा, सभी शरीरों को सदा से जानता रहता है॥१४॥
शब्दमायावृतो नैव तमसा याति पुष्करे । भिन्ने तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति॥१५॥
15. Being covered by Maya, which is a mere sound, It does not, through darkness, know the Akasa (the Blissful one). When ignorance is rent asunder, It being then Itself only sees the unity.
जब तक नाम-रूपात्मक अस्तित्व रखने वाली माया के द्वारा (यह) जीवात्मा आवृत रहता है, तब तक बँधे हुए की भाँति हृदय-कमल में स्थित रहता है, जब अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है, तब ज्ञान रूपी प्रकाश में विद्वान् पुरुष जीवात्मा एवं परमात्मा के एकत्व का दर्शन प्राप्त कर लेता है॥१५॥
शब्दाक्षरं परं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम् । तद्विद्वानक्षरं ध्यायेद्यदीच्छेच्छान्तिमात्मनः॥१६॥
16. The Om as Word is (first looked upon as) the Supreme Brahman. After that (word-idea) has vanished, that imperishable Brahman (remains). The wise one should meditate on that imperishable Brahman, if he desires the peace of his soul.
शब्द ब्रह्म (प्रणव) और परब्रह्म दोनों ही अक्षर हैं। इन दोनों में से जिस किसी एक के क्षीण होने पर मग तो अक्षय की स्थिति में बना रहता है, वह (परब्रह्म ) ही वास्तविक अक्षर (अविनाशी) है। विद्वान् शान्ति चाहते हों, तो उन्हें उस अक्षर रूप परब्रह्म का ही चिन्तन करना चाहिए॥१६॥
द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति॥१७॥
17. Two kinds of Vidya ought to be known – the Word-Brahman and the Supreme Brahman. One having mastered the Word-Brahman attains to the Highest Brahman.
दो विद्याएँ जानने योग्य हैं, प्रथम विद्या को 'शब्द ब्रह्म' और दूसरी विद्या को 'परब्रह्म' के नाम से जाना जाता है। 'शब्द ब्रह्म' अर्थात् वेद-शास्त्रों के ज्ञान में निष्णात होने पर विद्वान् मनुष्य परब्रह्म को जानने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है॥१७॥
ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः । पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः॥१८॥
18. After studying the Vedas the intelligent one who is solely intent on acquiring knowledge and realisation, should discard the Vedas altogether, as the man who seeks to obtain rice discards the husk.
ज्ञानी मनुष्य को चाहिए कि ग्रन्थ का अभ्यास करने के पश्चात् उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान को (मूलतत्त्व को ) ग्रहण कर ले, तदनन्तर ग्रन्थ को त्याग देना चाहिए। ठीक उसी भाँति, जैसे कि धान्य (अन्न) को प्राप्त करने वाला व्यक्ति अन्न तो प्राप्त कर लेता है और पुआल को खलिहान में ही छोड़ देता है॥१८॥
गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता । क्षीरवत्पश्यते ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा॥१९॥
19. Of cows which are of diverse colours the milk is of the same colour. (the intelligent one) regards Jnana as the milk, and the many-branched Vedas as the cows.
अनेक रूप-रंगों वाली गौओं का दुग्ध एक ही रंग का होता है। ठीक वैसे ही बुद्धिमान् व्यक्ति अनेक साम्प्रदायिक चिह्नों को धारण करने वाले मनुष्यों के विवेक को भी गौओं के दूध की तरह ही देखता है। बाहर के चिह्न-भेद से ज्ञान में किसी भी तरह का अन्तर नहीं आने पाता॥१९॥
घृतमिव पयसि निगूढं भूते भूते च वसति विज्ञानम् । सततं मनसि मन्थयितव्यं मनो मन्थानभूतेन॥२०॥
20. Like the butter hidden in milk, the Pure Consciousness resides in every being. That ought to be constantly churned out by the churning rod of the mind.
जिस प्रकार दूध में घृत (घी) मूल रूप से छिपा रहता है, उसी तरह ही प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में विज्ञान (चिन्मय ब्रह्म) स्थित रहता है। जैसे घृत प्राप्ति के लिए दूध का मंथन किया जाता है, वैसे ही विज्ञान स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति के लिए मन को मथानी रूप में परिणत करके सतत मन्थन ( ध्यान एवं विचार) करते रहना चाहिए॥२०॥
ज्ञाननेत्रं समाधाय चोद्धरेद्वह्निवत्परम् । निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रह्माहमिति स्मृतम्॥२१॥
21. Taking hold of the rope of knowledge, one should bring out, like fire, the Supreme Brahman. I am that Brahman indivisible, immutable, and calm, thus it is thought of.
इसके पश्चात् ज्ञान दृष्टि प्राप्त करके अग्नि के सदृश तेज:स्वरूप परमात्मा का इस भाँति अनुभव करें कि वह कला शून्य, निश्चल एवं अतिशान्त परब्रह्म मैं स्वयं ही हूँ। यही विज्ञान कहा गया है॥२१॥
सर्वभूताधिवासं यद्भूतेषु च वसत्यपि । सर्वानुग्राहकत्वेन तदस्म्यहं वासुदेवः॥२२॥
22. In Whom reside all beings, and Who resides in all beings by virtue of His being the giver of grace to all – I am that Soul of the Universe, the Supreme Being, I am that Soul of the Universe, the Supreme Being.
जिसमें समस्त भूत प्राणियों का निवास है, जो स्वयं भी सभी भूत प्राणियों के हृदय में स्थित है एवं सभी पर अहैतुकी कृपा करने के कारण प्रसिद्ध है। वह सभी आत्माओं में स्थित वासुदेव मैं ही हैं, वह सर्वात्मा वासुदेव मैं स्वयं ही हैं। इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥२२॥
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