VI-1: Then Sukesa, son of Bharadvaja, asked him, "Venerable sir, Hiranyanabha, a prince of Kosala, approached me and put this question, 'Bharadvaja, do you know the Purusha possessed of sixteen limbs?' To that prince I said, 'I do not know him. Had I known him why should I not have told you? Anyone who utters a falsehood dries up root and all. Therefore I cannot afford to utter a falsehood. Silently he went away riding on the chariot. Of that Purusha I ask you, 'Where does He exist?'"
अब भरद्वाज पुत्र सुकेशा ने पूछा - भगवन् ! कौसलदेशीय राजपुत्र हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछा था - ‘भरद्वाज ! सोलह कलाओं वाले वाले पुरुष को जानते हो ?’ उस राजकुमार से मैंने कहा - ‘मैं इसे नही जानता, यदि जानता तो तुझे क्यों नहीं बताता । वह जो झूठ बोलता है वह मूलसहित सूख जाता है । अतः मैं झूठ बोलने में समर्थ नहीं हूँ ।’ तब वह चुपचाप रथ पर सवार होकर चला गया । वही मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसा पुरुष कहाँ है ?॥१॥
तस्मै स होवाच । इहईवान्तःशरीरे सोभ्य स पुरुषो यस्मिन्नताः षोडशकलाः प्रभवन्तीति ॥२॥
VI-2: To him he (Pippalada) said: O amiable one, here itself inside the body is that Purusha in whom originate these sixteen digits (or limbs).
वे उससे बोले - हे सौम्य ! यहाँ शरीर के भीतर ही है, वह पुरुष जिसमें इन सोलह कलाओं का प्रादुर्भाव होता है ॥२॥
स ईक्षाचक्रे । कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन्वा प्रतिष्टिते प्रतिष्टस्यामीति ॥३॥
VI-3: He deliberated: "As a result of whose departure shall I rise up? And as a result of whose continuance shall I remain established?"
उसने विचार किया कि किसके उत्क्रमण करने से मैं भी उत्क्रमण को प्राप्त होऊँगा और किसके स्थित होने पर मैं भी स्थित होऊँगा ?॥३॥
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनः । अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च ॥४॥
VI-4: He created Prana; from Prana (He created) faith, space, air, fire, water, earth, organs, mind, food; from food (He created) vigour, self-control, mantras, rites, worlds and name in the worlds.
उसने प्राण का सृजन किया । फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, और अन्न एवं अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोक तथा लोकों में नाम को उत्पन्न किया ॥४॥
स यथेमा नध्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते तासां नामरुपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते । एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते चासां नामरुपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकः ॥५॥
VI-5: The illustration is this: Just as these flowing rivers that have the sea as their goal, get absorbed after reaching the sea, and their names and forms are destroyed, and they are called merely the sea, so also these sixteen parts (i.e. constituents) of the all-seeing Purusha, that have Purusha as their goal, disappear on reaching Purusha, when their names and forms are destroyed and they are simply called Purusha. Such a man of realisation becomes free from the parts and is immortal. On this point there occurs this verse:
जिस प्रकार समुद्र की ओर बहती हुई ये नदियाँ समुद्र में पहुँचकर अस्त हो जाती हैं, उनके नाम- रूप नष्ट हो जाते हैं, और फिर वे ‘समुद्र’ कहकर ही पुकारी जाती हैं । इसी प्रकार इस सर्वद्रष्टा की ये सोलह कलाएँ, जिनका वह पुरुष ही अधिष्ठान है, उस पुरुष को प्राप्त हो उसी में लीं हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘पुरुष’ कहकर ही पुकारी जाती हैं । ऐसा वह कलारहित और अमर है । इस प्रकार यह श्लोक है ॥५॥
अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्टिताः । तं वेध्यं पुरुषं वेद यथ मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥६॥
VI-6: You should know that Purusha who is worthy to be known and in whom are transfixed the parts like spokes in the nave of a chariot wheel, so that death may not afflict you anywhere.
जिस प्रकार रथ की नाभि में अरे स्थित होते हैं, उसी प्रकार ये सभी कलाएँ जिसमें प्रतिष्ठित हैं, वही पुरुष जानने योग्य है, जिससे कि मृत्यु तुम्हें कष्ट न पहुँचा सके ॥६॥
तान् होवाचैतावदेवाहमेतत् परं ब्रह्म वेद । नातः परमस्तीति ॥७॥
VI-7: To them he said, "I know this supreme Brahman thus far only. Beyond this there is nothing."
वे उन सबसे बोले - इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ । इसके पर कुछ नही है ॥७॥
ते तमर्चयन्तस्त्वं हि नः पिता योऽस्माकमविध्यायाः परं परं तारयसीति । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥८॥
VI-8: While worshipping him they said, "You indeed are our father who have ferried us across nescience to the other shore. Salutation to the great seers. Salutation to the great seers."
तब उन्होंने उनकी अर्चना करते हुए कहा - आप हमारे पिता हैं, जिन्होंने अविद्या के पार पहुँचा दिया है । आप परमऋषि को नमस्कार है परमऋषि को नमस्कार है ॥८॥
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