ईशा वास्यम् इदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।१।।
All this, is pervaded by the Isha (Lord), Whatsoever moves in this world. By such a renunciation protect (thyself). Covet not the wealth of others. [1]
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ये जगत हैं, सब ईशा (ईश्वर) द्वारा ही व्याप्त है । उसके द्वारा त्यागरूप जो भी तुम्हारे लिए प्रदान किया गया है उसे अनासक्त रूप से भोगो । किसी के भी धन की इच्छा मत करो ॥१॥
कुर्वन् एव इह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः । एवं त्वयि न अन्यथा इतः अस्ति न कर्म लिप्यते नरे ।।२।।
By performing karma in this world one should wish to live a hundred years. Thus action does not bind thee, the doer. There is no other way than this. [2]
इस लोक में करने योग्य कर्मों को करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए । तेरे लिए इसके सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है । इस प्रकार कर्मों का लेप नहीं होता ॥२॥
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा आवृताः । ताँस्ते प्रेत्य अभिगच्छन्ति ये के च आत्म हनः जनाः ।।३।।
Those worlds of Asuras (demons) are enshrouded by blinding gloom. Those who are the slayers of the Self go to them after death. [3]
असुर्य सम्बन्धी जो लोक और योनियाँ हैं, वे अज्ञान और अन्धकार से आच्छादित हैं । जो मनुष्य आत्म का हनन करते हैं, वे मरकर उन्ही लोकों को प्राप्त होते हैं ॥३॥
अनेजत् एकम् मनसो जवीयो न एनत् देवा आप्नुवन पूर्वम् अर्षत् । तत् धावतो अन्यान अत्येति तिष्ठत् तस्मिन् अपः मातरिश्वा दधाति ।।४।।
Unmoving, It is one, faster than the mind. The senses cannot reach It, for It proceeds ahead. Remaining static It overtakes others that run. On account of Its presence, Matarsiva (the wind) conducts the activities of beings. [4]
वह आत्मतत्व अविचलित, एक तथा मन से भी तीव्र गति वाला है । इसे इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकतीं क्योंकि यह उन सबसे पहले है । वह स्थिर होते हुए भी सभी गतिशीलों का अतिक्रमण किये हुए है । उसी की सत्ता में ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृतिरूप कर्मों का विभाग करता है ॥४॥
तत् एजति तत् न एजति तत् दूरे तत् उ अन्तिके । तत् अन्तः अस्य सर्वस्य तत् उ सर्वस्य अस्य बाह्यतः ।।५ ।।
It moves; It moves not. It is far; It is near. It is within all; It is without all. [5]
वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अंतर्गत है और वही सबके बाहर भी है ॥५॥
यः तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति । सर्वभूतेषु च आत्मानं ततो न विजुगुप्सते ।।६ ।।
He who perceives all beings in the Self, and the Self in all beings, does not entertain any hatred on account of that perception. [6]
जो मनुष्य समस्त भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से भी घृणा कैसे कर सकता है ॥६॥
यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत् विजानतः । तत्र को मोहः कः शोक एकत्वम् अनुपश्यतः ।।७।।
When a man realises that all beings are but the Self, what delusion is there, what grief, to that perceiver of oneness? [7]
जिस स्थिति में मनुष्य के लिए सब भूत आत्मा ही हो गए उस समय एकत्व देखने वाले उस ज्ञानी को क्या मोह और क्या शोक रह जाता है ॥७॥
स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम् । कविः मनीषी परिभूः स्वयम्भू याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।।८।।
That (Self) is all-pervading, radiant, bodiless, Unbroken, without sinews, pure, untainted by sin, the all-seer, the lord of the mind, transcendent and self-existent. That (Self) did allot in proper order to the eternal Prajapatis known as samvatsara (year) their duties. [8]
वह आत्मा परम तेजोमय, शरीरों से रहित, अक्षत, स्नायु से रहित, शुद्ध, शुभाशुभकर्म-सम्पर्कशून्य, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू है । वही अनादि काल से सब अर्थों की रचना और विभाग करता आया है ॥८॥
अन्घं तमः प्रविशन्ति ये अविद्याम उपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः ।।९।।
Those who worship avidya (karma born of ignorance) go to pitch darkness, but to a greater darkness than this go those who are devoted to Vidya (knowledge of the Devatas). [9]
जो अविद्या (कर्म) की उपासना करते हैं, घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं । जो विद्या में रत हैं वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं ॥९॥
अन्यत् एव आहुः विद्यया अन्यत् आहुः अविद्यया । इति शुश्रुम धीराणां ये नः तत् विचचक्षिरे ।।१०।।
Different indeed, they say, is the result (attained) by vidya and different indeed, they say, is the result (attained) by avidya. Thus have we heard from the wise who had explained it to us. [10]
विद्या से कुछ और ही फल बतलाया गया है तथा अविद्या से कुछ और ही फल बतलाया गया है । ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें वह समझाया था ॥१०॥
विद्यां च अविद्यां च यः तत् वेद उभयम् सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।।११।।
He who knows both vidya and avidya together, transcends mortality through avidya and reaches immortality through vidya. [11]
जो विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ॥११॥
अन्धं तमः प्रविशन्ति ये असम्भूतिम् उपासते । ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः ।।१२।।
To pitch darkness they go who worship the Unmanifested (Prakriti). To a greater darkness than this go those who are devoted to the Manifested (Hiranyagarbha). [12]
जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति) की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं, और जो सम्भूति (कार्यब्रह्म) में ही रत हैं, वे मानो और भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं ॥१२॥
अन्यत् एव आहु: सम्भवात् अन्यत् आहुः असम्भवात् । इति शुश्रुम धीराणां ये नः तत विचचक्षिरे ।।१३।।
Different indeed, they say, is the result (attained) by the worship of the Manifested and different indeed, they say, is the result (attained) by the worship of the Unmanifested. Thus have we heard from the wise who had explained it to us. [13]
सम्भूति की उपासना का कुछ और ही फल बताया गया है, और असम्भूति की उपासना का कुछ और ही फल बताया गया है । ऐसा हमने उन धीर पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें वह समझाया था ॥१३॥
सम्भूतिं च विनाशं च यः तत् वेद उभयम् सह । विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्या अमृतम् अश्नुते ।।१४ ।।
He who knows both the Unmanifested and the destructible (Hiranyagarbha) together, transcends death by the (worship of) the destructible and attains immortality by the (worship of ) the Unmanifested. [14]
जो सम्भूति और विनाशशील दोनों को ही एक साथ जानता है, वह विनाशशील की उपासना से मृत्यु को पार करके अविनाशी की उपासना के द्वारा अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ॥१४॥
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रष्टये ।।१५।।
The face of the Truth is veiled by a bright vessel. Mayst thou unveil it, O Sun, so as to be perceived by me whose dharma is truth. [15]
वह, सत्य का मुख, स्वर्णरूप ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है । हे पूषन ! तू उस आवरण को हटा दे, जिससे कि सत्यधर्मी को उसका दर्शन हो सके ॥१५॥
पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह । तेजो यत् ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि यः असावसौ पुरुषः सः अहम् अस्मि ।।१६।।
O nourisher, pilgrim of the solitude, controller, absorber (of all rasas), offspring of Prajapati, cast away thy rays, gather them up and give up thy radiating brilliance. That form of thine, most graceful, I may behold. He, the Purusha, I am. [16]
हे पोषण करने वाले ! हे ज्ञानस्वरूप ! हे नियन्ता ! हे सूर्य ! हे प्रजापति ! अपनी इन रश्मि समूहों को एकत्र कर के हटा दें । इस तेज को अपने तेज में मिला लें । मैं इस प्रकार उस अतिशय कल्याणतम रूप को देखता हूँ । वह जो परम पुरुष है, वह मैं ही हूँ ॥१६॥
वायुः अनिलम् अमृतम् अथ इदम् भस्मान्तँ शरीरम् । ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर ।।१७।।
Let (my) vital air (prana) now attain the immortal Air (all-pervading Self); then let this body be reduced to ashes. Om, O mind, remember - remember that which has been done, O mind, remember - remember that which has been done. [17]
अब यह प्राण उस सर्वात्मक वायु, अनिल, अविनाशी को प्राप्त हो । और शरीर भस्म हो । ॐ ... अब किये हुए को स्मरण कर, किये हुए को स्मरण कर ॥१७॥
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव् वयुनानि विद्वान् । युयोधि अस्मत् जुहुराणम् एनः भूयिष्ठां ते नम उक्तिम् विधेम ।।१८।।
O Fire, O Deva, knower of all our actions or all our knowledge, lead us by the good path for enjoying the fruits of actions. Liberate us from our deceitful sins. We offer thee ever more our words of adoration. [18]
हे अग्नि ! आप ही धन हैं । सर्वस्व हैं । समस्त कर्मों को जानने वाले हैं । हे देव ! आपकी प्राप्ति में मेरे जो भी प्रतिबन्धक कर्म हैं, उन्हें दूर करें । आपको बार-बार नमस्कार है ॥१८॥
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