I-ii-1:That thing that is such, is true. The karmas that the wise discovered in the mantras are accomplished variously (in the context of the sacrifice) where the three Vedic duties get united. You perform them for ever with desire for the true results. This is your path leading to the fruits of karma acquired by yourselves.
ज्ञानी ऋषियों ने जिन कर्मों का मन्त्रों में साक्षात्कार किया था, वही यह सत्य है । यही तीन वेदों में बहुत प्रकार से व्याप्त है । सत्यकामी उनका नियमपूर्वक आचरण करे । लोक में वही शुभकर्म का मार्ग है ॥१॥
यदा लेलायते ह्यर्चिः समिद्धे हव्यवाहने । तदाऽऽज्यभागावन्तरेणाऽऽहुतीः प्रतिपादयेत् ॥२॥
I-ii-2: When, the fire being set ablaze, the flame shoots up, one should offer the oblations into that part that is in between the right and the left.
जिस समय हविष्य की वाहनरूप अग्नि प्रदीप्त होकर उसकी ज्वालाएँ ऊपर उठने लगें, उस समय दोनों आज्यभागों के मध्य में आहुतियाँ डाले ॥२॥
यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमासमचातुर्मास्यमनाग्रयणमतिथिवर्जितं च । अहुतमवैश्वदेवमविधिना हुतमासप्तमांस्तस्य लोकान् हिनस्ति ॥३॥
I-ii-3: It (i.e. the Agnihotra) destroys the seven worlds of that man whose Agnihotra (sacrifice) is without Darsa and Paurnamasa (rites), devoid of Chaturmasya, bereft of Agrayana, unblest with guests, goes unperformed, is unaccompanied by Vaisvadeva (rite) and is performed perfunctorily.
जिनका अग्निहोत्र दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और आग्रयण - इन कर्मों से रहित है तथा अतिथि पूजन से वर्जित, यथासमय किये जाने वाले हवन और वैश्वदेव् से रहित और अविधिपूर्वक हवन किया गया होता है, उसके सातों लोकों का वह नाश कर देता है ॥३॥
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा । स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः ॥४॥
I-ii-4: Kali, Karali, Manojava and Sulohita and that which is Sudhumravarna, as also Sphulingini, and the shining Visvaruchi - these are the seven flaming tongues.
काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, सुधूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी, और विश्वरुचि ये देवीयाँ उस अग्नि की लपलपाती हुई सात जिह्वाएँ हैं ॥४॥
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं चाहुतयो ह्याददायन् । तं नयन्त्येताः सूर्यस्य रश्मयो यत्र देवानां पतिरेकोऽधिवासः ॥५॥
I-ii-5: These oblations turn into the rays of the sun and taking him up they lead him, who performs the rites in these shining flames at the proper time, to where the single lord of the gods presides over all.
जो मनुष्य इन देदीप्यमान अग्निशिखाओं में ठीक समय पर आहुतियाँ देता हुआ आचरण करता है, उसे ये सूर्य की किरणें होकर वहाँ ले जाती हैं, जहाँ देवताओं का एकमात्र स्वामी रहता है ॥५॥
एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वहन्ति । प्रियां वाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य एष वः पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः ॥६॥
I-ii-6: Saying, 'Come, come', uttering pleasing words such as, 'This is your well-earned, virtuous path which leads to heaven', and offering him adoration, the scintillating oblations carry the sacrificer along the rays of the sun.
देदीप्यमान वे आहुतियाँ ‘आओ-आओ यह तुम्हारे शुभ कर्मों से प्राप्त पुण्यरूप ब्रह्मलोक है’ ऐसी प्रिय वाणी कहकर यजमान का सत्कार करती हुई उसे ले जाती हैं ॥६॥
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ॥७॥
I-ii-7: Since these eighteen constituents of a sacrifice, on whom the inferior karma has been said to rest, are perishable because of their fragility, therefore those ignorant people who get elated with the idea 'This is (the cause of) bliss', undergo old age and death over again.
ये यज्ञरूप अठारह नौकाएँ अस्थिर है, जिनमें निकृष्ट कर्म आश्रित कहा गया है । जो मूढ़ ‘श्रेय है’ इस प्रकार इनका अभिनन्दन करते हैं, वे बार-बार ही जरा-मरण को प्राप्त होते रहते हैं ॥७॥
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः । जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥८॥
I-ii-8: Remaining within the fold of ignorance and thinking, 'We are ourselves wise and learned', the fools, while being buffeted very much, ramble about like the blind led by the blind alone.
अविद्या के भीतर रहने वाले और स्वयं को बुद्धिमान और पंडित मानने वाले वे मूढ़ पुरुष आघात सहते हुए उसी प्रकार भटकते रहते है जिस प्रकार अन्धों के नियन्त्रण में अन्धे ॥८॥
अविद्यायं बहुधा वर्तमाना वयं कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः । यत् कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात् तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते ॥९॥
I-ii-9: Continuing diversely in the midst of ignorance, the unenlightened take airs by thinking, 'We have attained the goal.' Since the men, engaged in karma, do not understand (the truth) under the influence of attachment, thereby they become afflicted with sorrow and are deprived of heaven on the exhaustion of the results of karma.
बहुधा अविद्या में ही रहने वाले वे अल्पबुद्धि वाले ‘हम कृतार्थ हो गए हैं’ इस प्रकार अभिमान किया करते हैं । क्योंकि कर्मठ लोग राग के कारण ज्ञान को प्राप्त नही कर पाते, एवं दुःख से आतुर और क्षीण होकर स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं ॥९॥
इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः । नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥१०॥
I-ii-10: The deluded fools, believing the rites inculcated by the Vedas and the Smritis to be the highest, do not understand the other thing (that leads to) liberation. They, having enjoyed (the fruits of actions) in the abode of pleasure on the heights of heaven, enter this world or an inferior one.
इष्ट और पूर्त कर्मों को ही श्रेष्ठ मानने वाले वे महामूढ़ किसी अन्य को श्रेय नहीं समझते । शुभ कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग के उच्च स्थान में वहाँ के भोगों को अनुभव करके इस लोक अथवा इससे भी हीन लोकों में प्रवेश करते हैं ॥१०॥
तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्यां चरन्तः । सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा ॥११॥
I-ii-11: Those who live in the forest, while begging for alms - viz. those (forest-dwellers and hermits) who resort to the duties of their respective stages of life as well as to meditation - and the learned (householders) who have their senses under control - (they) after becoming freed from dirt, go by the path of the sun to where lives that Purusha, immortal and un-decaying by nature.
तप और श्रद्धा का सेवन करने वाले, वन में रहकर भिक्षावृत्ति का आचरण करने वाले वे शान्त और विद्वान् रजोगुण रहित सूर्य के मार्ग से वहाँ जाते हैं, जहाँ वह अमृत और अविनाशी रहता है ॥११॥
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥१२॥
I-ii-12: A Brahmana should resort to renunciation after examining the worlds acquired through karma, with the help of this maxim: 'There is nothing (here) that is not the result of karma; so what is the need of (performing) karma?' For knowing that Reality he should go, with sacrificial faggots in hand, only to a teacher versed in the Vedas and absorbed in Brahman.
कर्म द्वारा प्राप्त लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण निर्वेद को प्राप्त हो जाय । कर्म के द्वारा वह अकृत स्वतःसिद्ध नहीं मिल सकता । तब वह उसको जानने के लिए समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाए ॥१२॥
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय । येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम् ॥१३॥
I-ii-13: To him who has approached duly, whose heart is calm and whose outer organs are under control, that man of enlightenment should adequately impart that knowledge of Brahman by which one realizes the true and imperishable Purusha.
वह विद्वान् गुरु-शरण में आये हुए उस पूर्णतया शान्तचित्त वाले, उस जितेन्द्रिय को उस ब्रह्मविद्या का तत्वतः उपदेश करे जिससे उसे अक्षर और सत्य पुरुष का ज्ञान हो ॥१३॥
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