Tuesday, July 11, 2023

MUNDAKA UPANISHAD -II : Part-2

आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रैतत् समर्पितम् । एजत्प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् ॥१॥

II-ii-1: (It is) effulgent, near at hand, and well known as moving in the heart, and (It is) the great goal. On It are fixed all these that move, breathe, and wink or do not wink. Know this One which comprises the gross and the subtle, which is beyond the ordinary knowledge of creatures, and which is the most desirable and the highest of all.

यही प्रकाशस्वरुप सबमें निहित, गुहाचर नामक महान पद है । इसी में ये सब चेष्टा करने वाले, प्राणन करने वाले और निमेषोन्मेष करने वाले समर्पित हैं । इसे ही वरण करने योग्य, सत्, असत्, प्रजाओं के विज्ञान से परे और सर्वश्रेष्ठ जानो ॥१॥

यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च यस्मिँल्लोका निहिता लोकिनश्च । तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वाङ्मनः तदेतत्सत्यं तदमृतं तद्वेद्धव्यं सोम्य विद्धि ॥२॥

II-ii-2: That which is bright and is subtler than the subtle, and that on which are fixed all the worlds as well as the dwellers of the worlds, is this immutable Brahman; It is this vital force; It, again, is speech and mind. This Entity, that is such, is true. It is immortal. It is to be penetrated, O good-looking one, shoot (at It).

जो दीप्तिमान है, अणु से भी अणु है तथा जिसमें समस्त लोक और लोकनिवासी स्थित हैं, वही यह अक्षर ब्रह्म है । वह प्राण है, वही वाणी है, मन है । वही यह सत्य है , वही अमृत है । हे सौम्य ! उस बेधने योग्य लक्ष्य को ही तू बेध ॥२॥

धनुर् गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं शरं ह्युपासा निशितं सन्धयीत । आयम्य तद्भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥३॥

II-ii-3: Taking hold of the bow, the great weapon familiar in the Upanishads, one should fix on it an arrow sharpened with meditation. Drawing the string, O good-looking one, hit that very target that is the Imperishable, with the mind absorbed in Its thought.

उपनिषदरूपी महान् अस्त्र धनुष को ग्रहण कर उस पर उपासना द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ बाण चढ़ाकर और भावपूर्ण चित्त से, हे सौम्य ! उस अक्षर को लक्ष्य मानकर उसका वेधन कर ॥३॥

प्रणवो धनुः शारो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ॥४॥

II-ii-4: Om is the bow; the soul is the arrow; and Brahman is called its target. It is to be hit by an unerring man. One should become one with It just like an arrow.

प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा गया है । बाण की तरह तन्मय हो और प्रमाद रहित होकर उसका वेधन कर ॥४॥

यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः । तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥५॥

II-ii-5: Know that Self alone that is one without a second, on which are strung heaven, the earth and the inter-space, the mind and the vital forces together with all the other organs; and give up all other talks. This is the bridge leading to immortality.

जिसमें स्वर्ग, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और समस्त प्राणों सहित मन ओतप्रोत है, उस एक आत्मा को ही जानो, अन्य सब बातों को छोड़ दो । यही अमृत का सेतु है ॥५॥

अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः । स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः । ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् ॥६॥

II-ii-6: Within that (heart) in which are fixed the nerves like the spokes on the hub of a chariot wheel, moves this aforesaid Self by becoming multiformed. Meditate on the Self thus with the help of Om. May you be free from hindrances in going to the other shore beyond darkness.

रथ की नाभि के अरों की भाँति जिसमें समस्त नाड़ियाँ एकत्र होती हैं, वह अनेक प्रकार से उत्पन्न होने वाला इस हृदय में रहता हुआ संचार करता है । उस आत्मा का ओमरूप से ही ध्यान करो । अज्ञान के उस पार होकर तुम्हारा कल्याण हो ॥६॥

यः सर्वज्ञः सर्वविद् यस्यैष महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः । मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय । तद् विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद् विभाति ॥७॥

II-ii-7: That Self which is omniscient in general and all-knowing in detail and which has such glory in this world - that Self, which is of this kind - is seated in the space within the luminous city of Brahman. It is conditioned by the mind, It is the carrier of the vital forces and the body, It is seated in food by placing the intellect (in the cavity of the heart). Through their knowledge, the discriminating people realize that Self as existing in Its fullness everywhere - the Self that shines surpassingly as blissfulness and immortality.

वह सर्वज्ञ और सर्ववित् तथा जिसकी ही भूलोक में यह महिमा है, वह यह आत्मा दिव्य आकाशरूप ब्रह्मलोक में स्थित है । प्राण और शरीर का नेता और मनोमय है । हृदय का आश्रय लेकर अन्नमय शरीर में प्रतिष्ठित है । जो आनन्दस्वरूप, अमृतरूप से प्रकाशित हो रहा है, धीर पुरुष विज्ञान के द्वारा उसका साक्षात्कार कर लेते हैं ॥७॥

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥८॥

II-ii-8: When that Self, which is both the high and the low, is realized, the knot of the heart gets united, all doubts become solved, and all one's actions become dissipated.

उस कार्यकारणस्वरुप को जान लेने पर इस जीव की हृदय ग्रन्थि टूट जाती है, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और उसके कर्म भी क्षीण हो जाते हैं ॥८॥

हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम् । तच्छुभ्रं ज्योतिषं ज्योतिस्तद् यदात्मविदो विदुः ॥९॥

II-ii-9: In the supreme, bright sheath is Brahman, free from taints and without parts. It is pure, and is the Light of lights. It is that which the knowers of the Self realize.

वह रजरहित, कलाहीन ब्रह्म परम प्रकाशमय कोश में विद्यमान है । वह विशुद्ध और समस्त ज्योतियों की ज्योति है, जिसे आत्मज्ञानी जानते हैं ॥९॥

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥१०॥

II-ii-10: There the sun does not shine, nor the moon or the stars; nor do these flashes of lightning shine there. How can this fire do so? Everything shines according as He does so; by His light all this shines diversely.

वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है और न चन्द्रमा और न तारे ही । न विद्युत ही चमकती है, अग्नि की तो बात ही क्या । उसके प्रकाशित होने पर ही सब प्रकाशित होता है । उसी के प्रकाश से यह सब प्रकाशमान है ॥१०॥

ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण । अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥ ११॥

II-ii-11: All this that is in front is but Brahman, the immortal. Brahman is at the back, as also on the right and the left. It is extended above and below, too. This world is nothing but Brahman, the highest.

यह अमृतस्वरूप ब्रह्म ही सामने है, ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दक्षिण और उत्तर में है, यही ऊपर-नीचे फैला हुआ है । ब्रह्म ही सारा विश्व है । वही सर्वश्रेष्ठ है ॥११॥

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