I-iii-1: He thought, "This, then, are the senses and the deities of the senses. Let Me create food for them.
उसने इच्छा की - ‘अब इन लोक और लोकपालों के लिए अन्न की रचना करूँ’ ॥१॥
सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत । या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत् ॥२॥
I-iii-2: He deliberated with regard to the water. From the water, thus brooded over, evolved a form. The form that emerged was verily food.
उसने अप् (जल) के माध्यम से तप किया । उस तपे हुए जल से मूर्ति उत्पन्न हुई । वह जो मूर्ति उत्पन्न हुई वही अन्न है ॥२॥
तदेनत्सृष्टं पराङ्त्यजिघांसत्तद्वाचाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोद्वाचा ग्रहीतुम् । स यद्धैनद्वाचाऽग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥३॥
I-iii-3: This food, that was created, turned back and attempted to run away. He tried to take it up with speech. He did not succeed in taking it up through speech. If He had succeeded in taking it up with the speech, then one would have become contented merely by talking of food.
रचा गया वह अन्न उससे विमुख होकर भागने की इच्छा करने लगा । तब उसने वाणी द्वारा उसे ग्रहण करने की चेष्टा की । वाणी द्वारा ग्रहण न कर सका । यदि वह वाणी द्वारा ही इसे ग्रहण लेता तो फिर अन्न का वर्णन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ।॥३॥
तत्प्राणेनाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं स यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥४॥
I-iii-4: He tied to grasp that food with the sense of smell. He did not succeed in grasping it by smelling. If He had succeeded in grasping it by smelling, then everyone should have become contented merely by smelling food.
उसे प्राण से ग्रहण करने की चेष्टा की । प्राण से ग्रहण न कर सका । यदि वह प्राण से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न के लिए प्राणक्रिया करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥४॥
तच्चक्षुषाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतुन् स यद्धैनच्चक्षुषाऽग्रहैष्यद्दृष्ट्वा हैवानमत्रप्स्यत् ॥५॥
I-iii-5: He wanted to take up the food with the eye. He did not succeed in taking it up with the eye. If He had taken it up with the eye, then one would have become satisfied by merely seeing food.
उसे चक्षु से ग्रहण करने की चेष्टा की । चक्षु से ग्रहण न कर सका । यदि वह चक्षु से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥५॥
तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं स यद्धैनच्छ्रोतेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥६॥
I-iii-6: He wanted to take up the food with the ear. He did not succeed in taking it up with the ear. If He had taken it up with the ear, then one would have become satisfied by merely by hearing of food.
उसे श्रोत्र से ग्रहण करने की चेष्टा की । श्रोत्र से ग्रहण न कर सका । यदि वह श्रोत्र से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को सुनने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥६॥
तत्त्वचाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोत्त्वचा ग्रहीतुं स यद्धैनत्त्वचाऽग्रहैष्यत् स्पृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥७॥
I-iii-7: He wanted to take it up with the sense of touch. He did not succeed in taking it up with the sense of touch. If He had taken it up with touch, then one would have become been satisfied merely by touching food.
उसे त्वचा से ग्रहण करने की चेष्टा की । त्वचा से ग्रहण न कर सका । यदि वह त्वचा से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को स्पर्श करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥७॥
तन्मनसाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोन्मनसा ग्रहीतुं स यद्धैनन्मनसाऽग्रहैष्यद्ध्यात्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥८॥
I-iii-8: He wanted to take it up with the mind. He did not succeed in taking it up with the mind. If He had taken it up with the mind, then one would have become satisfied by merely thinking of food.
उसने मन से ग्रहण करने की चेष्टा की । मन से ग्रहण न कर सका । यदि वह मन से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का ध्यान करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥८॥
तच्छिश्नेनाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्छिश्नेन ग्रहीतुं स यद्धैनच्छिश्नेनाग्रहैष्यद्वित्सृज्य हैवानमत्रप्स्यत् ॥९॥
I-iii-9: He wanted to take it up with the procreative organ. He did not succeed in taking it up with the procreative organ. If He had taken it up with the procreative organ, then one would have become satisfied by merely ejecting food.
उसे शिश्न से ग्रहण करने की चेष्टा की । शिश्न से ग्रहण न कर सका । यदि वह शिश्न से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का विसर्जन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥९॥
तदपानेनाजिघृक्षत् तदावयत् सैषोऽन्नस्य ग्रहो यद्वायुरनायुर्वा एष यद्वायुः ॥१०॥
I-iii-10: He wanted to take it up with Apana. He caught it. This is the devourer of food. That vital energy which is well known as dependent of food for its subsistence is this vital energy (called Apana).
उसे अपान से ग्रहण करने की चेष्टा की । उसको ग्रहण कर लिया । यह ही अन्न का गृह है । जो वायु अन्न से सम्बन्धित आयु के लिए प्रसिद्द है यही वह है ॥१०॥
स ईक्षत कथं न्विदं मदृते स्यादिति स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति । स ईक्षत यदि वाचाऽभिव्याहृतं यदि प्राणेनाभिप्राणितं यदि चक्षुषा दृष्टं यदि श्रोत्रेण श्रुतं यदि त्वचा स्पृष्टं यदि मनसा ध्यातं यद्यपानेनाभ्यपानितं यदि शिश्नेन विसृष्टमथ कोऽहमिति ॥११॥
I-iii-11: He thought, "How indeed can it be there without Me?" He thought, "Through which of the two ways should I enter?" He thought, "If utterance is done by the organ of speech, smelling by the sense of smell, seeing by the eye, hearing by the ear, feeling by the sense of touch, thinking by the mind, the act of drawing in (or pressing down) by Apana, ejecting by the procreative organ, then who (or what) am I?"
उसने विचार किया - ‘यह मेरे बिना कैसे रहेगा’ । यदि वाणी द्वारा बोल लिया जाए, प्राण द्वारा प्राणन कर लिया जाय, यदि चक्षु द्वारा देख लिया जाय, यदि कान से सुन लिया जाय, यदि त्वचा से स्पर्श कर लिया जाय, यदि मन से चिन्तन कर लिया जाय, यदि अपान से भक्षण कर लिया जाय और शिश्न से विसर्जन कर लिया जाय, तब मैं कौन हुआ ? उसने इच्छा की - ‘किस मार्ग से प्रवेश करूँ’ ॥११॥
स एतमेव सीमानं विदर्यैतया द्वारा प्रापद्यत । सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नाऽन्दनम् । तस्य त्रय आवसथास्त्रयः स्वप्ना अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथ इति ॥१२॥
I-iii-12: Having split up this very end, He entered through this door. This entrance is known as vidriti (the chief entrance). Hence it is delightful. Of Him there are three abodes - three (states of) dream. This one is an abode, this one is an abode. This one is an abode.
उसने इसकी सीमा को विदीर्ण कर द्वार प्राप्त किया । वह यह द्वार ‘विद्रति’ नामवाला है । वही यह आनन्द देने वाला है । उसके तीन आश्रयस्थान ही तीन स्वप्न हैं । यही आश्रय है, यही आश्रय है, यही आश्रय है ॥१२॥
स जातो भूतान्यभिव्यैख्यत् किमिहान्यं वावदिषदिति ।स एतमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् । इदमदर्शनमिती ॥१३॥
I-iii-13: Being born, He manifested all the beings; for did He speak of (or know) anything else? He realised this very Purusha as Brahman, the most pervasive, thus: "I have realised this".
तब उस जन्म पाये हुए ने भूत-जगत को ग्रहण किया और कहा - ‘यहाँ दूसरा कौन है’ । उसने इस पुरुष को ही ब्रह्मरूप से देखा । ‘मैंने इसे देख लिया’ ॥१३॥
तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम । तमिदन्द्रं सन्तमिंद्र इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः ॥१४॥
I-iii-14: Therefore His name is Idandra. He is verily known as Idandra. Although He is Idandra, they call Him indirectly Indra; for the gods are verily fond of indirect names, the gods are verily fond of indirect names.
इसलिए वह इदन्द्र नाम वाला हुआ । इदन्द्र ही उसका नाम हैं। इदन्द्र होने पर भी उसे परोक्षरूप से इन्द्र ही पुकारते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं ॥१४॥
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