Wednesday, July 12, 2023

MUNDAKA UPANISHAD -III :Part-2

स वेदैतत् परमं ब्रह्म धाम यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम् । उपासते पुरुषं ये ह्यकामास्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः ॥ १॥

III-ii-1: He knows this supreme abode, this Brahman, in which is placed the Universe and which shines holy. Those wise ones indeed, who having become desireless, worship this (enlightened) person, transcend this human seed.

वह इस परम विशुद्ध ब्रह्मधाम को जान लेता है, जिसमे यह विश्व निहित हुआ प्रतीत हो रहा है । जो भी निष्कामभाव से उस आत्मज्ञ पुरुष की उपासना करते हैं, वे बुद्धिमान इस शुक्रमय जगत को अतिक्रमण कर जाते हैं ॥१॥

कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र । पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥२॥

III-ii-2: He who covets the desirable things, while brooding (on the virtues), is born amidst those very surroundings along with the desires. But for one who has got his wishes fulfilled and who is Self-poised, all the longings vanish even here.

कामनाओं का चिन्तन करने वाला पुरुष कामना करता हुआ कामनाओं के अनुरूप ही उन-उन स्थानों में उत्पन्न होता है । परन्तु पूर्णकाम हो चुका है उस कृतकृत्य पुरुष की समस्त कामनाएँ यहीं सर्वथा विलीन हो जाती हैं ॥२॥

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥३॥

III-ii-3: This Self is not attained through study, nor through the intellect, nor through much hearing. The very Self which this one (i.e. the aspirant) seeks is attainable through that fact of seeking; this Self of his reveals Its own nature.

न यह आत्मा प्रवचन से प्राप्त होने योग्य है, न मेधा से, न बहुत सुनने से ही । यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे ही प्राप्त होता है । यह आत्मा उसके प्रति अपने स्वरुप को व्यक्त कर देता है ॥३॥

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात् । एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ॥४॥

III-ii-4: This Self is not attained by one devoid of strength, nor through delusion, nor through knowledge unassociated with monasticism. But the Self of that knower, who strives through these means, enters into the abode that is Brahman.

न यह आत्मा बलहीन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, न प्रमाद से, न लिंगरहित तप से ही । किन्तु जो विद्वान् इन उपायों से यत्न करता है उसका यह आत्मा ब्रह्मधाम में प्रविष्ट हो जाता है ॥४॥

सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति ॥५॥

III-ii-5: Having attained this, the seers become contented with their knowledge, established in the Self, freed from attachment, and composed. Having realized the all-pervasive One everywhere, these discriminating people, ever merged in contemplation, enter into the All.

इसे प्राप्त कर ऋषिगण ज्ञानतृप्त, कृतकृत्य, विरक्त और प्रशान्त हो जाते हैं । वे धीर पुरुष उस सर्वव्यापी को सब ओर से प्राप्तकर आत्मयुक्त होकर सर्व में ही प्रविष्ट हो जाते हैं ॥५॥

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शुद्धसत्त्वाः । ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥६॥

III-ii-6: Those to whom the entity presented by the Vedantic knowledge has become fully ascertained, who are assiduous and have become pure in mind through the Yoga of monasticism - all of them, at the supreme moment of final departure, become identified with the supreme Immortality in the worlds that are Brahman, and they become freed on every side.

वेदान्तविज्ञान के सुनिश्चित अर्थ को जानकर जिन्होंने संन्यास और योग के यत्न से अन्तःकरण को शुद्ध कर लिया है, वे देहत्याग के समय ब्रह्मलोक में परम अमृतत्व को प्राप्त कर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं ॥६॥

गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु । कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्वे एकीभवन्ति ॥७॥

III-ii-7: To their sources repair the fifteen constituents (of the body) and to their respective gods go all the gods (of the senses). The karmas and the soul appearing like the intellect, all become unified with the supreme Un-decaying.

पंद्रह कलाएँ अपने आश्रयों में स्थित हो जाती हैं । समस्त देवता अपने प्रतिदेवताओं में । समस्त कर्म और विज्ञानमय आत्मा,सभी परम अव्यय में एकीभाव को प्राप्त हो जाते हैं ॥७॥

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽ स्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥८॥

III-ii-8: As rivers, flowing down, become indistinguishable on reaching the sea by giving up their names and forms, so also the illumined soul, having become freed from name and form, reaches the self-effulgent Purusha that is higher than the higher (Maya).

जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ अपने नाम रूप को त्यागकर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान् नाम-रूप से मुक्त होकर उस दिव्य परात्पर पुरुष को प्राप्त हो जाता है ॥८॥

स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति । तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥९॥

III-ii-9: Anyone who knows that supreme Brahman becomes Brahman indeed. In his line is not born anyone who does not know Brahman. He overcomes grief, and rises above aberrations; and becoming freed from the knots of the heart, he attains immortality.

जो कोई भी उस परमब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है । उसके कुल में कोई ब्रह्म को न जानने वाला नहीं होता । शोक और पाप से पार हो जाता है । हृदयग्रन्थियों से मुक्त हो अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है ॥९॥

तदेतदृचाऽभ्युक्तम् । क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः स्वयं जुह्वत एकर्षिं श्रद्धयन्तः । तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवद् यैस्तु चीर्णम् ॥१०॥

III-ii-10: This (rule) has been revealed by the mantra (which runs thus): 'To them alone should one expound this knowledge of Brahman who are engaged in the practice of disciplines, versed in the Vedas, and indeed devoted to Brahman, who personally sacrifice to the fire called Ekarsi with faith, and by whom has been duly accomplished the vow of holding fire on the head.'

जो क्रियावान, श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, और स्वयं श्रद्धापूर्वक एकर्षि नामक अग्नि में हवन करते हैं तथा जिन्होंने विधिपूर्वक शिरोव्रत का पालन किया है, उन्हीं से यह ब्रह्मविद्या कहनी चाहिए ॥१०॥

तदेतत् सत्यमृषिरङ्गिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥११॥

III-ii-11: The seer Angiras spoke of this Truth in the days of yore. One that has not fulfilled the vow does not read this. Salutation to the great seers. Salutation to the great seers.

उसी इस सत्य का पूर्वकाल में अंगिरा ऋषि ने उपदेश किया । जिसने शिरोव्रत का अनुष्ठान नहीं किया वह इसका अध्ययन नहीं कर सकता । परमऋषियों को नमस्कार है, परमऋषियों को नमस्कार है ॥११॥

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