Monday, July 17, 2023

AMRITBINDU UPANISHAD

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च । अशुद्धं कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम्॥१॥

1. The mind is chiefly spoken of as of two kinds, pure and impure. The impure mind is that which is possessed of desire, and the pure is that which is devoid of desire. 

मन के दो प्रकार कहे गये हैं, शुद्ध मन और अशुद्ध मन । जिसमें इच्छाओं, कामनाओं के संकल्प उत्पन्न होते हैं,वह अशुद्ध मन है और जिसमें इन समस्त इच्छाओं का सर्वथा अभाव हो गया है,वही शुद्ध मन है॥१॥

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥२॥

2. It is indeed the mind that is the cause of men’s bondage and liberation. The mind that is attached to sense-objects leads to bondage, while dissociated from sense-objects it tends to lead to liberation. So they think. 

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का और कामना-संकल्प से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है॥२॥

यतो निर्विषयस्यास्य मनसो मुक्तिरिष्यते । अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा॥ निरस्तविषयासङ्गं संनिरुद्धं मनो हृदि । यदाऽऽयात्यात्मनो भावं तदा तत्परमं पदम्॥३-४॥

3-4. Since liberation is predicated of the mind devoid of desire for sense-objects, therefore, the mind should always be made free of such desire, by the seeker after liberation. When the mind, with its attachment for sense-objects annihilated, is fully controlled within the heart and thus realises its own essence, then that Supreme State (is gained). 

विषय-भोगों के संकल्प से रहित होने पर ही इस मन का विलय होता है। अतः मुक्ति की इच्छा रखने वाला साधक अपने मन को सदा ही विषयों से दूर रखे। इसके अनन्तर जब मन से विषयों की आसक्ति निकल जाती है तथा वह हृदय में स्थिर होकर उन्मनी भाव को प्राप्त हो जाता है, तब वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है॥३-४॥

तावदेव निरोद्धव्यं यावधृदि गतं क्षयम् । एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषो न्यायश्च विस्तरः॥५॥

5. The mind should be controlled to that extent in which it gets merged in the heart. This is Jnana (realisation) and this is Dhyana (meditation) also, all else is argumentation and verbiage. 

मनुष्य को अपना मन तभी तक रोकने का प्रयास करना चाहिए, जब तक कि वह हृदय में विलीन नहीं हो जाता। मन का हृदय में लीन हो जाना ही ज्ञान और मुक्ति है, इसके अतिरिक्त और जो कुछ भी है, वह सब ग्रन्थ का मात्र विस्तार ही है॥५॥

नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च । पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥६॥

6. (The Supreme State) is neither to be thought of (as being something external and pleasing to the mind), nor unworthy to be thought of (as something unpleasant to the mind); nor is It to be thought of (as being of the form of sense-pleasure), but to be thought of (as the essence of the ever-manifest, eternal, supreme Bliss Itself); that Brahman which is free from all partiality is attained in that state. 

जब चिन्तनीय और अचिन्तनीय का उस (साधक) के समक्ष कोई अन्तर न रह जाए तथा दोनों में से किसी के प्रति भी मन का पक्षपात भी न रह जाए , तब साधक ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है॥६॥

स्वरेण संधयेद्योगमस्वरं भावयेत्परम् । अस्वरेणानुभावेन नाभावो भाव इष्यते॥७॥

7. One should duly practise concentration on Om (first) through the means of its letters, then meditate on Om without regard to its letters. Finally on the realisation with this latter form of meditation on Om, the idea of the non-entity is attained as entity. 

(साधक को) स्वर अर्थात् प्रणव के द्वारा व्यक्त ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए तथा इसके पश्चात् । अस्वर द्वारा (प्रणव से अतीत) अव्यक्त ब्रह्म का चिन्तन करे। प्रणवातीत उस श्रेष्ठ, परब्रह्म की प्राप्ति भावना के माध्यम से भाव-रूप में होती है, अभाव रूप में नहीं॥७॥

तदेव निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम् । तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा ब्रह्म सम्पद्यते ध्रुवम्॥८॥

8. That alone is Brahman, without component parts, without doubt and without taint. Realising “I am that Brahman” one becomes the immutable Brahman. 

वह ब्रह्म कलाओं से रहित (एक रस-प्राणादि कलाओं से ऊपर), निर्विकल्प एवं निरञ्जन अर्थात् माया और मल से रहित है।'वह ब्रह्म मैं ही हूँ', इस प्रकार जान करके मनुष्य निश्चित ही ब्रह्ममय हो जाता है॥८॥

निर्विकल्पमनन्तं च हेतुदृष्टान्तवर्जितम् । अप्रमेयमनादिं च यज्ज्ञात्वा मुच्यते बुधः॥९॥

9. (Brahman is) without doubt, endless, beyond reason and analogy, beyond all proofs and causeless knowing which the wise one becomes free.

निर्विकल्प, अन्तरहित (अनन्त), हेतु और दृष्टान्त से शून्य, प्रपञ्च से रहित, अनादि, परम कल्याणमय परब्रह्म को जानकर विद्वान् पुरुष स्वयमेव मुक्त हो जाता है॥९॥

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥१०॥

10. The highest Truth is that (pure consciousness) which realises, “There is neither control of the mind, nor its coming into play”, “Neither am I bound, nor am I a worshipper, neither am I a seeker after liberation, nor one-who has attained liberation”.

न निरोध (प्रलय) है, न उत्पत्ति है, न बन्धन है और न ही (मोक्ष) साधकता है, न मुक्ति की इच्छा है। और न ही मुक्ति है। इस तरह का निश्चय होना ही परमार्थ बोध अर्थात् वास्तविक ज्ञान है॥१०॥

एक एवात्मा मन्तव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु । स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते॥११॥

11. Verily the Atman should be known as being the same in Its states of wakefulness, dreaming, and dreamless sleep. For him who has transcended the three states there is no more rebirth.

शरीर की इन तीनों जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में एक ही आत्मतत्त्व को सम्बन्ध मानना चाहिए। जो भी व्यक्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो गया है,उस व्यक्ति का दूसरा जन्म फिर नहीं होता॥११॥

एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्॥१२॥

12. Being the one, the universal Soul is present in all beings. Though one, It is seen as many, like the moon in the water.

समस्त भूत प्राणियों का एक ही अन्तर्यामी हर एक प्राणी के अन्त:करण में विद्यमान है। अलग-अलग जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा की तरह वही एक, अनेक रूपों में दिखाई देता है॥१२॥
घटसंवृतमाकाशं नीयमानो घटे यथा । घटो नीयेत नाकाशः तद्वज्जीवो नभोपमः॥१३॥

13. Just as it is the jar which being removed (from one place to another) changes places and not the Akasa enclosed in the jar – so is the Jiva which resembles the Akasa.

घट (घड़े) में आकाश तत्त्व पूर्णरूप से विद्यमान है; किन्तु जिस प्रकार घड़े के क्षत-विक्षत होने पर मात्र घड़े का ही विनाश होता है, उसमें भरे हुए आकाश तत्त्व का नहीं, उसी प्रकार शरीर धारण करने वाला जीव भी आकाश के ही सदृश है। शरीर के विनष्ट होने से आत्मा का विनाश नहीं होता, वह शाश्वत है॥१३॥

घटवद्विविधाकारं भिद्यमानं पुनः पुनः । तद्भेदे न च जानाति स जानाति च नित्यशः॥१४॥

14. When various forms like the jar are broken again and again the Akasa does not know them to be broken, but He knows perfectly.

समस्त जीव-प्राणियों का भिन्न-भिन्न शरीर, घट के ही समान है, जो बार-बार टूटता-फूटता या विनाश को प्राप्त होता रहता है। यह विनाश को प्राप्त होने वाला जड़ शरीर अपने अन्त:करण में विद्यमान चिन्मय परब्रह्म को नहीं जानता; किन्तु वह सभी का साक्षी परमात्मा, सभी शरीरों को सदा से जानता रहता है॥१४॥

शब्दमायावृतो नैव तमसा याति पुष्करे । भिन्ने तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति॥१५॥

15. Being covered by Maya, which is a mere sound, It does not, through darkness, know the Akasa (the Blissful one). When ignorance is rent asunder, It being then Itself only sees the unity.

जब तक नाम-रूपात्मक अस्तित्व रखने वाली माया के द्वारा (यह) जीवात्मा आवृत रहता है, तब तक बँधे हुए की भाँति हृदय-कमल में स्थित रहता है, जब अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है, तब ज्ञान रूपी प्रकाश में विद्वान् पुरुष जीवात्मा एवं परमात्मा के एकत्व का दर्शन प्राप्त कर लेता है॥१५॥

शब्दाक्षरं परं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम् । तद्विद्वानक्षरं ध्यायेद्यदीच्छेच्छान्तिमात्मनः॥१६॥

16. The Om as Word is (first looked upon as) the Supreme Brahman. After that (word-idea) has vanished, that imperishable Brahman (remains). The wise one should meditate on that imperishable Brahman, if he desires the peace of his soul.

शब्द ब्रह्म (प्रणव) और परब्रह्म दोनों ही अक्षर हैं। इन दोनों में से जिस किसी एक के क्षीण होने पर मग तो अक्षय की स्थिति में बना रहता है, वह (परब्रह्म ) ही वास्तविक अक्षर (अविनाशी) है। विद्वान् शान्ति चाहते हों, तो उन्हें उस अक्षर रूप परब्रह्म का ही चिन्तन करना चाहिए॥१६॥

द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति॥१७॥

17. Two kinds of Vidya ought to be known – the Word-Brahman and the Supreme Brahman. One having mastered the Word-Brahman attains to the Highest Brahman.

दो विद्याएँ जानने योग्य हैं, प्रथम विद्या को 'शब्द ब्रह्म' और दूसरी विद्या को 'परब्रह्म' के नाम से जाना जाता है। 'शब्द ब्रह्म' अर्थात् वेद-शास्त्रों के ज्ञान में निष्णात होने पर विद्वान् मनुष्य परब्रह्म को जानने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है॥१७॥

ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः । पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः॥१८॥

18. After studying the Vedas the intelligent one who is solely intent on acquiring knowledge and realisation, should discard the Vedas altogether, as the man who seeks to obtain rice discards the husk.

ज्ञानी मनुष्य को चाहिए कि ग्रन्थ का अभ्यास करने के पश्चात् उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान को (मूलतत्त्व को ) ग्रहण कर ले, तदनन्तर ग्रन्थ को त्याग देना चाहिए। ठीक उसी भाँति, जैसे कि धान्य (अन्न) को प्राप्त करने वाला व्यक्ति अन्न तो प्राप्त कर लेता है और पुआल को खलिहान में ही छोड़ देता है॥१८॥

गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता । क्षीरवत्पश्यते ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा॥१९॥

19. Of cows which are of diverse colours the milk is of the same colour. (the intelligent one) regards Jnana as the milk, and the many-branched Vedas as the cows.

अनेक रूप-रंगों वाली गौओं का दुग्ध एक ही रंग का होता है। ठीक वैसे ही बुद्धिमान् व्यक्ति अनेक साम्प्रदायिक चिह्नों को धारण करने वाले मनुष्यों के विवेक को भी गौओं के दूध की तरह ही देखता है। बाहर के चिह्न-भेद से ज्ञान में किसी भी तरह का अन्तर नहीं आने पाता॥१९॥

घृतमिव पयसि निगूढं भूते भूते च वसति विज्ञानम् । सततं मनसि मन्थयितव्यं मनो मन्थानभूतेन॥२०॥

20. Like the butter hidden in milk, the Pure Consciousness resides in every being. That ought to be constantly churned out by the churning rod of the mind.

जिस प्रकार दूध में घृत (घी) मूल रूप से छिपा रहता है, उसी तरह ही प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में विज्ञान (चिन्मय ब्रह्म) स्थित रहता है। जैसे घृत प्राप्ति के लिए दूध का मंथन किया जाता है, वैसे ही विज्ञान स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति के लिए मन को मथानी रूप में परिणत करके सतत मन्थन ( ध्यान एवं विचार) करते रहना चाहिए॥२०॥

ज्ञाननेत्रं समाधाय चोद्धरेद्वह्निवत्परम् । निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रह्माहमिति स्मृतम्॥२१॥

21. Taking hold of the rope of knowledge, one should bring out, like fire, the Supreme Brahman. I am that Brahman indivisible, immutable, and calm, thus it is thought of.

इसके पश्चात् ज्ञान दृष्टि प्राप्त करके अग्नि के सदृश तेज:स्वरूप परमात्मा का इस भाँति अनुभव करें कि वह कला शून्य, निश्चल एवं अतिशान्त परब्रह्म मैं स्वयं ही हूँ। यही विज्ञान कहा गया है॥२१॥

सर्वभूताधिवासं यद्भूतेषु च वसत्यपि । सर्वानुग्राहकत्वेन तदस्म्यहं वासुदेवः॥२२॥

22. In Whom reside all beings, and Who resides in all beings by virtue of His being the giver of grace to all – I am that Soul of the Universe, the Supreme Being, I am that Soul of the Universe, the Supreme Being.

जिसमें समस्त भूत प्राणियों का निवास है, जो स्वयं भी सभी भूत प्राणियों के हृदय में स्थित है एवं सभी पर अहैतुकी कृपा करने के कारण प्रसिद्ध है। वह सभी आत्माओं में स्थित वासुदेव मैं ही हैं, वह सर्वात्मा वासुदेव मैं स्वयं ही हैं। इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥२२॥


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Saturday, July 15, 2023

PARAMHANS UPANISHAD

अथ योगिनं परमहंसनं कोऽयं मार्नस्तेषं का स्थितिरिति नारदो भगवन्तमुपगत्योवाच । तं भगवानाः । योऽयं परमहंसमार्गो लोके दुर्लभतरो न तु बाहुल्यो यद्येको भवति स एव नित्यपूतस्थः स एव वेदपुरुष इति विदुषो मन्यन्ते महापुरुषो यच्चित्तं तत्सर्वदा मय्येवावतिष्टते तस्मादहं च तस्मिन्नेवावस्थीयते । असौ स्वपुत्रमित्रकलत्रबन्व्वादीञ्शिखायज्ञोपवीते स्वाध्यायं च सर्वकर्माणि संन्यस्यायं ब्रह्माण्डं च हित्वा कौपीनं दण्डमाच्छादनं च स्वशरीरोपभोगार्थाय च लोकस्योपकारार्थाय च परिग्रहेत्तच्च न मुख्योऽस्ति कोऽयं मुख्य इति चेदयं मुख्यः ॥ १॥

1. “What is the path of the Paramahamsa Yogis, and what are their duties ?” – was the question Narada asked on approaching the Lord Brahma (the Creator). To him the Lord replied: The path of the Paramahamsas that you ask of is accessible with the greatest difficulty by people; they have not many exponents, and it is enough if there be one such. Verily, such a one rests in the ever-pure Brahman; he is verily the Brahman inculcated in the Vedas – this is what the knowers of Truth hold; he is the great one, for he rests his whole mind always in Me; and I, too, for that reason, reside in him. Having renounced his sons, friends, wife, and relations, etc., and having done away with the Shikha, the holy thread, the study of the Vedas, and all works, as well as this universe, he should use the Kaupina, the staff, and just enough clothes, etc., for the bare maintenance of his body, and for the good of all. And that is not final. If it is asked what this final is, it is as follows:

एक बार नारद मुनि ने भगवान् (ब्रह्मा) के पास जाकर पूछा-योगी पुरुषों में जो परमहंस हैं, उनकी स्थिति कैसी होती है और उनका मार्ग कौन सा है? यह सुनकर भगवान् ने कहा- परमहंसों का मार्ग इस जगत् में अति दुर्लभ है, ऐसे व्यक्ति संसार में बहुत कम ही होते हैं। परमहंस संन्यासी एकाध ही मिलते हैं, वे नित्य पवित्र भाव में स्थित रहते हैं। ऐसे परमहंस ही वेद-पुरुष हैं; ऐसा विद्वज्जन मानते हैं। ऐसे महापुरुष का चित्त सदैव मुझमें ही अधिष्ठित रहता है और मैं भी उस महापुरुष में ही स्थित रहता हूँ । परमहंस संन्यासी अपने पुत्र, पत्नी, बन्धु, शिखा, यज्ञोपवीत, स्वाध्याय आदि समस्त कर्मों का परित्याग कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के हित में शरीर की रक्षा के लिए मात्र कौपीन, दण्ड और आच्छादन (उपवस्त्र) धारण करता है; किन्तु यह भी परमहंस की मुख्य दीक्षा नहीं है। नारद ने पूछा-फिर मुख्य दीक्षा कौन सी है?॥१॥

न दण्डं न शिखं न यज्ञोपवीतं न चाच्छादनं चरति परमहंसः । न शितं न चोष्णं न सुखं न दुःखं न मानावमाने च षडूर्मिवर्जं निन्दागर्वमत्सरदम्मदर्पेच्छाद्वेषसुखदुःखकामकोधलोभमोहहर्षसु उयाहंकारादींश्च हित्वा स्ववपुः कुणपमिव दृष्यते यतस्तद्वपुरपध्वस्तं संशयविपरीतमिथ्याज्ञानानां यो हेतुस्तेन नित्यनिवृत्तस्तन्नित्यबोधस्तत्स्वयमेवावस्थितिस्तं शन्तमचलमद्वयानन्दविज्ञानघन एवास्मि । तदेव मम परम्धाम तदेव शिखा च तदेवोपवीत च । परमात्मात्मनोरेकत्वज्ञानेन तयोर्भेद एव विभग्नः सा सध्या ॥ २॥

2. The Paramahamsa carries neither the staff, nor the hair-tuft, nor the holy thread nor any covering. He feels neither cold, nor heat, neither happiness nor misery, neither honour, nor contempt etc. It is meet that he should be beyond the reach of the six billows of this world-ocean. Having given up all thought of calumny, conceit, jealousy, ostentation, arrogance, attachment or antipathy to objects, joy and sorrow, lust, anger, covetousness, self-delusion, elation, envy, egoism, and the like, he regards his body as a corpse, as he has thoroughly destroyed the body-idea. Being eternally free from the cause of doubt, and of misconceived and false knowledge, realising the Eternal Brahman, he lives in that himself, with the consciousness “I myself am He, I am That which is ever calm, immutable, undivided, of the essence of knowledge-bliss, That alone is my real nature.” That (Jnana) alone is his Shikha. That (Jnana) alone is his holy thread. Through the knowledge of the unity of the Jivatman with the Paramatman, the distinction between them is wholly gone too. This (unification) is his Sandhya ceremony.

परमहंस की प्रमुख दीक्षा इस प्रकार है-वह दण्ड, शिखा, यज्ञोपवीत, आच्छादन धारण न करे। इसके अतिरिक्त शीत, उष्ण, मान-अपमान, सुख और दुःख इन षड्ऊर्मियों से रहित हो। वह निन्दा, गर्व, मत्सर, दर्प, इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, काम, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष, असया, अहंकार को त्यागकर अपनी काया को तक के समान देखता है। उसका संशय और मिथ्याभाव तिरोहित हो जाता है। वह नित्य बोध स्वरूप होता है,जो संसार में किसी भी पदार्थ की अपेक्षा न रखता हुआ यह मानता है कि मैं एक मात्र अचल, अद्वयानन्द और चिङ्घन ही हूँ। यही मेरा परमधाम है, शिखा और यज्ञोपवीत सभी कुछ यही है। वह आत्मा और परमात्मा में समान दृष्टि रखता है, उसके लिए दोनों का भेद नष्ट हो जाता है, यही उसकी सन्ध्या है॥२॥


सर्वान्कामान्परित्यज्य अद्वैते परमस्थितिः । ज्ञानदण्डो धृतो येन एकदण्डो स उच्यते ॥ काष्ठदण्डो धृतो येन सर्वाशि ज्ञानवर्जितः । स याति नरकान्धोरान्महारौरवसञ्ज्ञकान् ॥ इदमन्तरं ज्ञात्वा स परमहंसः ॥ ३॥

3. He who relinquishing all desires has his supreme rest in the One without a second, and who holds the staff of knowledge, is the true Ekadandi. He who carries a mere wooden staff, who takes to all sorts of sense-objects, and is devoid of Jnana, goes to horrible hells known as the Maharauravas. Knowing the distinction between these two, he becomes a Paramahamsa.

वह (परमहंस) समस्त कामनाओं का परित्याग करके अद्वैत परब्रह्म के स्वरूप में स्थित रहता है। ज्ञान का दण्ड धारण किये रहने के कारण उसे एकदण्डी स्वामी भी कहते हैं; किन्तु जो काष्ठ दण्ड धारण किये रहकर समस्त आशाओं से पूर्ण है, अज्ञानी है, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शम आदि गुणों से रहित है तथा भिक्षा मात्र से जीवनयापन करते हुए, जिसने यति वृत्ति का विनाश कर दिया है, वह पापी घोर रौरव नामक नरक में जाता है। जो इस अन्तर (पापी संन्यासी और परमहंस के अन्तर) को समझता है, वह परमहंस है॥३॥


आशाम्बरो न नमर्कारो न स्वधाकारो न निन्दा न स्तुतिर्यादृच्छिको भवेद्भिक्षुर्नाऽऽवाहनं न विसर्जनं न मन्त्रं न ध्यानं नोपासनं च न लक्ष्यं नाकक्ष्यं न पृथग्नापृथगहं न न त्वं न सर्व चानिकेतस्थितिरेव भिक्षुः सौवर्णादीनं नैव परिग्नहेन्न लोकं नावलोकं चाऽऽबाधकं क इति चेद्बाधकोऽस्त्येव यस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन दृष्टं च स ब्रह्महा भवेत् । यस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन ग्राह्यं च स आत्महा भवेत् । तस्माद्भिक्षुर्हिरण्यं रसेन न दृष्टं च न स्पृष्टं च न ग्राह्यं च । सर्वे कामा मनोगता व्यावर्तन्ते । दुःखे नोद्विग्नः सुखे न स्पृहा त्यागो रागे सर्वत्र शुभाशुभयोरनभिस्नेहो न द्वेष्टि न मोदं च । सर्वेषामिन्द्रियाणां गतिरुपरमते य आत्मन्येवावस्थीयते यत्पूर्णानन्दैकबोधस्तदब्रह्माहमस्मीति कृतकृत्यो भवति कृतकृत्यो भवति ॥ ४॥

4. The quarters are his clothing, he prostrates himself before none, he offers no oblation to the Pitris (manes), blames none, praises none – the Sannyasin is ever of independent will. For him there is no invocation to God, no valedictory ceremony to him; no Mantra, no meditation, no worship; to him is neither the phenomenal world nor That which is unknowable; he sees neither duality nor does he perceive unity. He sees neither “I” nor ‘thou”, nor all this. The Sannyasin has no home. He should not accept anything made of gold or the like, he should not have a body of disciples, or accept wealth. If it be asked what harm there is in accepting them, (the reply is) yes, there is harm in doing so. Because if the Sannyasin looks at gold with longing, he makes himself a killer of Brahman; because if the Sannyasin touches gold with longing, he becomes degraded into a Chandala; because if he takes gold with longing, he makes himself a killer of the Atman. Therefore, the Sannyasin must neither look at, nor touch nor take gold, with longing. All desires of the mind cease to exist, (and consequently) he is not agitated by grief, and has no longing for happiness; renunciation of attachment to sense-pleasures comes, and he is everywhere unattached in good or evil, (consequently) he neither hates nor is elated. The outgoing tendency of all the sense-organs subsides in him who rests in the Atman alone. Realising “I am that Brahman who is the One Infinite Knowledge-Bliss” he reaches the end of his desires, verily he reaches the end of his desires.

वह दिगम्बर, नमस्कार, स्वाहाकार, स्वधाकार, निन्दा, स्तुति की ओर ध्यान न देकर स्वेच्छापूर्वक भिक्षु बनता है। उसका आवाहन, विसर्जन, मन्त्र, ध्यान, उपासना, लक्ष्य, अलक्ष्य कुछ भी नहीं होता। उसको पृथक्, अपृथक्, मेरे-तेरे का भाव और सर्वभाव भी नहीं होता। वह अनिकेत अर्थात् निवास रहित और स्थिर-मति वाला होता है। वह भिक्षु स्वर्ण आदि के संग्रह में प्रवृत्त नहीं होता। उसे कोई वस्तु आकर्षक और अनाकर्षक प्रतीत नहीं होती। उसके लिए क्या बाधक है? अर्थात् कुछ नहीं। भिक्षु परमहंस होकर यदि वह स्वर्ण (धन) से प्रेम करे, तो उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है। भिक्षु होकर यदि परमहंस स्वर्ण से लगाव रखता है, तो चाण्डाल की तरह होता है। स्वर्ण से प्रेम करने वाला भिक्षु आत्मघाती होता है। इसलिए भिक्षु (परमहंस) को चाहिए कि वह न तो स्वर्ण को देखे, न स्पर्श करे और न ग्रहण ही करे। ऐसा परमहंस आप्तकाम हो जाता है अर्थात् या तो उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं या समाप्त हो जाती हैं। वह दुःख से उद्विग्न नहीं होता और सुख से भी निस्पृह रहता है। राग को त्याग कर वह शुभ और अशुभ के प्रति स्नेहहीन (आसक्ति रहित) हो जाता है, जो न द्वेष करता है, न मुदित होता है। उसकी समस्त इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं। वह अपने आत्म-तत्त्व में ही स्थित रहता है। वह अपने को सदा पूर्णानन्द, पूर्ण बोध स्वरूप ब्रह्म ही समझता है। ऐसी मान्यता रखने (और अनुभव करने) से वह कृत-कृत्य हो जाता है॥४॥

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AITAREYA UPANISHAD: Third Chapter

ॐ कोऽयमात्मेति वयमुपास्महे कतरः स आत्मा । येन वा पश्यति येन वा शृणोति येन वा गंधानाजिघ्रति येन वा वाचं व्याकरोति येन वा स्वादु चास्वादु च विजानाति ॥१॥

III-i-1: What is It that we worship as this Self? Which of the two is the Self? Is It that by which one sees, or that by which one hears, or that by which one smells odour, or that by which one utters speech, or that by which one tastes the sweet or the sour?

कौन है वह आत्मा जिसकी हम उपासना करते हैं ? कौन है वह आत्मा जिससे देखा जाता है, जिससे सुना जाता है, जिससे गन्ध को सूँघा जाता है, जिससे वाणी को व्याकरित किया जाता है, जिससे स्वाद और आस्वाद को जाना जाता है ?॥१॥

यदेतद्धृदयं मनश्चैतत् । संज्ञानमाज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं मेधा दृष्टिर्धृतिमतिर्मनीषा जूतिः स्मृतिः संकल्पः क्रतुरसुः कामोवश इति । सर्वाण्येवैतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवंति ॥२॥

III-i-2: It is this heart (intellect) and this mind that were stated earlier. It is sentience, rulership, secular knowledge, presence of mind, retentiveness, sense-perception, fortitude, thinking, genius, mental suffering, memory, ascertainment resolution, life-activities, hankering, passion and such others. All these verily are the names of Consciousness.

यह जो हृदय है वही मन भी है । संज्ञान्, आज्ञान्, विज्ञान, प्रज्ञान, मेधा, द्रष्टि, धृति, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु, काम और वश - ये सब के सब प्रज्ञान् के ही नामधेय हैं ॥२॥

एष ब्रह्मैष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्वे देवा इमानि च पञ्चमहाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव । बीजानीतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोद्भिज्जानि चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किञ्चेदं प्राणि जङ्गमं च पतत्रि च यच्च स्थावरं सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रं प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म ॥३॥

III-i-3: This One is (the inferior) Brahman; this is Indra, this is Prajapati; this is all these gods; and this is these five elements, viz. earth, air, space, water, fire; and this is all these (big creatures), together with the small ones, that are the procreators of others and referable in pairs - to wit, those that are born of eggs, of wombs, of moisture of the earth, viz. horses, cattle, men, elephants, and all the creatures that there are which move or fly and those which do not move. All these have Consciousness as the giver of their reality; all these are impelled by Consciousness; the universe has Consciousness as its eye and Consciousness is its end. Consciousness is Brahman. 

यह ब्रह्म है, यह इन्द्र है, यही प्रजापति है, यही समस्त देव और पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज - ये पाँच महाभूत है, यही क्षुद्र जीवों सहित उनके बीज और अण्डज, जरायुज, स्वेदज, उद्भिज्ज, अश्व, गौ, हाथी, एवं मनुष्य है तथा जो कुछ भी यह पँखोंवाले, जंगम और स्थावर, प्राणिवर्ग हैं वह सब प्रज्ञानेत्र हैं । प्रज्ञान में ही प्रतिष्ठित प्रज्ञानेत्र लोक है । प्रज्ञा ही प्रतिष्ठा है, प्रज्ञान् ही ब्रह्म है ॥३॥

स एतेन प्राज्ञेनाऽऽत्मनाऽस्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके सर्वान् कामानाप्त्वाऽमृतः समभवत् समभवत् ॥४॥

III-i-4: Through this Self that is Consciousness, he ascended higher up from this world, and getting all desires fulfilled in that heavenly world, he became immortal, he became immortal.

वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस स्वर्ग लोक में इस प्रज्ञानरूप आत्म सहित सभी कामनाओं से तृप्त हो अमृत हो गया, हो गया ॥४॥

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AITAREYA UPANISHAD: Second Chapter

ॐ पुरुषे ह वा अयमादितो गर्भो भवति यदेतद्रेतः । तदेतत्सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेजः संभूतमात्मन्येवऽऽत्मानं बिभर्ति तद्यदा स्त्रियां सिञ्चत्यथैनज्जनयति तदस्य प्रथमं जन्म ॥१॥

II-i-1: In man indeed is the soul first conceived. That which is the semen is extracted from all the limbs as their vigour. He holds that self of his in his own self. When he sheds it into his wife, then he procreates it. That is its first birth.

सबसे पहले यह पुरुष शरीर में ही गर्भरूप से रहता है । यह जो रेतस् है, वह सभी अंगों का तेज है, आत्मभाव से उसे स्वयं में ही धारण करता है । जब उसको स्त्री में सिंचन करता है, तब उसको ही उत्पन्न करता है । यही इसका पहला जन्म है ॥१॥

तत्स्त्रिया आत्मभूयं गच्छति यथा स्वमङ्गं तथा । तस्मादेनां न हिनस्ति । साऽस्यैतमात्मानमत्र गतं भावयति ॥२॥

II-i-2: That becomes non-different from the wife, just as much as her own limb is. Therefore (the foetus) does not hurt her. She nourishes this self of his that has entered here (in her womb).

वह स्त्री के ही आत्मभाव को प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार स्वयं का अंग होता है । इसी कारण उसे पीड़ा नहीं देता । वह यहाँ आये हुए उस आत्म का पालन करती है ॥२॥

सा भावयित्री भावयितव्या भवति । तं स्त्री गर्भ बिभर्ति । सोऽग्र एव कुमारं जन्मनोऽग्रेऽधिभावयति । स यत्कुमारं जन्मनोऽग्रेऽधिभावयत्यात्मानमेव तद्भावयत्येषं लोकानां सन्तत्या । एवं सन्तता हीमे लोकास्तदस्य द्वितीयं जन्म ॥३॥

II-i-3: She, the nourisher, becomes fit to be nourished. The wife bears that embryo (before the birth). He (the father) protects the son at the very start, soon after his birth. That he protects the son at the very beginning, just after birth, thereby he protects his own self for the sake of the continuance of these worlds. For thus is the continuance of these worlds ensured. That is his second birth.

तब वह पोषण करने वाली, स्वयं भी पोषण के योग्य होती है । वह स्त्री गर्भ धारण करती है । वह कुमार के रूप में जन्म लेता है, उन्नति करता है । इस प्रकार वह आत्म ही कुमाररूप में जन्म लेता हुआ और उन्नति करता हुआ लोकों का विस्तार करता है । इस प्रकार लोक में संततिरूप से यह ही दूसरा जन्म है ॥३॥

सोऽस्यायमात्मा पुण्येभ्यः कर्मभ्यः प्रतिधीयते । अथास्यायामितर आत्मा कृतकृत्यो वयोगतः प्रैति । स इतः प्रयन्नेव पुनर्जायते तदस्य तृतीयं जन्म ॥४॥

II-i-4: This self of his (viz. the son) is substituted (by the father) for the performance of virtuous deeds. Then this other self of his (that is the father of the son), having got his duties ended and having advanced in age, departs. As soon as he departs, he takes birth again. That is his (i.e. the son's) third birth.

वह यह आत्म उसके पुण्यों का प्रतिनिधि हो जाता है । और इसका वह अन्य आत्म कर्तव्यों को पूर्ण करके, आयु पूरी होने पर प्रस्थान करता है । और यहाँ से जाकर ही फिर पुनः जन्म लेता है, यह इसका तीसरा जन्म है ॥४॥

तदुक्तमृषिणा गर्भे नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा शतं मा पुर आयसीररक्षन्नधः श्येनो जवसा निरदीयमिति । गर्भ एवैतच्छयानो वामदेव एवमुवाच ॥५॥

II-i-5: This fact was stated by the seer (i.e. mantra): "Even while lying in the womb, I came to know of the birth of all the gods. A hundred iron citadels held me down. Then, like a hawk, I forced my way through by dint of knowledge of the Self". Vamadeva said this while still lying in the mother's womb.

यही बात ऋषि ने कही है - ‘मैंने गर्भ में रहते हुए ही इन देवताओं के समस्त जन्मों को जान लिया है । मुझे सैकड़ों लोहे के समान कठोर शरीरों ने अवरुद्ध कर रखा था अब मैं बाज़ पक्षी के समान वेग से सबको तोड़ता हुआ बाहर निकल आया हूँ’ । गर्भ में सोए हुए ही वामदेव ऋषि ने इस प्रकार यह कहा ॥५॥

स एवं विद्वानस्माच्छरीरभेदादूर्ध्व उत्क्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके सर्वान् कामानाप्त्वाऽमृतः समभवत् समभवत् ॥६॥

II-i-6: He who had known thus (had) become identified with the Supreme, and attained all desirable things (even here); and having (then) ascended higher up after the destruction of the body, he became immortal, in the world of the Self. He became immortal.

इस प्रकार जानने वाला वह इस शरीर को भेदकर, ऊपर की ओर उत्क्रमण करके उस स्वर्गलोक में समस्त कामनाओं से तृप्त होकर अमृत हो गया, हो गया ॥६॥

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AITAREYA UPANISHAD: First Chapter( Third Part)

स ईक्षतेमे नु लोकाश्च लोकपालाश्चान्नमेभ्यः सृजा इति ॥१॥

I-iii-1: He thought, "This, then, are the senses and the deities of the senses. Let Me create food for them.

उसने इच्छा की - ‘अब इन लोक और लोकपालों के लिए अन्न की रचना करूँ’ ॥१॥

सोऽपोऽभ्यतपत्ताभ्योऽभितप्ताभ्यो मूर्तिरजायत । या वै सा मूर्तिरजायतान्नं वै तत् ॥२॥

I-iii-2: He deliberated with regard to the water. From the water, thus brooded over, evolved a form. The form that emerged was verily food.

उसने अप् (जल) के माध्यम से तप किया । उस तपे हुए जल से मूर्ति उत्पन्न हुई । वह जो मूर्ति उत्पन्न हुई वही अन्न है ॥२॥

तदेनत्सृष्टं पराङ्त्यजिघांसत्तद्वाचाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोद्वाचा ग्रहीतुम् । स यद्धैनद्वाचाऽग्रहैष्यदभिव्याहृत्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥३॥

I-iii-3: This food, that was created, turned back and attempted to run away. He tried to take it up with speech. He did not succeed in taking it up through speech. If He had succeeded in taking it up with the speech, then one would have become contented merely by talking of food.

रचा गया वह अन्न उससे विमुख होकर भागने की इच्छा करने लगा । तब उसने वाणी द्वारा उसे ग्रहण करने की चेष्टा की । वाणी द्वारा ग्रहण न कर सका । यदि वह वाणी द्वारा ही इसे ग्रहण लेता तो फिर अन्न का वर्णन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ।॥३॥

तत्प्राणेनाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोत्प्राणेन ग्रहीतुं स यद्धैनत्प्राणेनाग्रहैष्यदभिप्राण्य हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥४॥

I-iii-4: He tied to grasp that food with the sense of smell. He did not succeed in grasping it by smelling. If He had succeeded in grasping it by smelling, then everyone should have become contented merely by smelling food.

उसे प्राण से ग्रहण करने की चेष्टा की । प्राण से ग्रहण न कर सका । यदि वह प्राण से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न के लिए प्राणक्रिया करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥४॥

तच्चक्षुषाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्चक्षुषा ग्रहीतुन् स यद्धैनच्चक्षुषाऽग्रहैष्यद्दृष्ट्वा हैवानमत्रप्स्यत् ॥५॥

I-iii-5: He wanted to take up the food with the eye. He did not succeed in taking it up with the eye. If He had taken it up with the eye, then one would have become satisfied by merely seeing food.

उसे चक्षु से ग्रहण करने की चेष्टा की । चक्षु से ग्रहण न कर सका । यदि वह चक्षु से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥५॥

तच्छ्रोत्रेणाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्छ्रोत्रेण ग्रहीतुं स यद्धैनच्छ्रोतेणाग्रहैष्यच्छ्रुत्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥६॥

I-iii-6: He wanted to take up the food with the ear. He did not succeed in taking it up with the ear. If He had taken it up with the ear, then one would have become satisfied by merely by hearing of food.

उसे श्रोत्र से ग्रहण करने की चेष्टा की । श्रोत्र से ग्रहण न कर सका । यदि वह श्रोत्र से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को सुनने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥६॥

तत्त्वचाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोत्त्वचा ग्रहीतुं स यद्धैनत्त्वचाऽग्रहैष्यत् स्पृष्ट्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥७॥

I-iii-7: He wanted to take it up with the sense of touch. He did not succeed in taking it up with the sense of touch. If He had taken it up with touch, then one would have become been satisfied merely by touching food.

उसे त्वचा से ग्रहण करने की चेष्टा की । त्वचा से ग्रहण न कर सका । यदि वह त्वचा से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को स्पर्श करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥७॥

तन्मनसाऽजिघृक्षत् तन्नाशक्नोन्मनसा ग्रहीतुं स यद्धैनन्मनसाऽग्रहैष्यद्ध्यात्वा हैवान्नमत्रप्स्यत् ॥८॥

I-iii-8: He wanted to take it up with the mind. He did not succeed in taking it up with the mind. If He had taken it up with the mind, then one would have become satisfied by merely thinking of food.

उसने मन से ग्रहण करने की चेष्टा की । मन से ग्रहण न कर सका । यदि वह मन से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का ध्यान करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥८॥

तच्छिश्नेनाजिघृक्षत् तन्नाशक्नोच्छिश्नेन ग्रहीतुं स यद्धैनच्छिश्नेनाग्रहैष्यद्वित्सृज्य हैवानमत्रप्स्यत् ॥९॥

I-iii-9: He wanted to take it up with the procreative organ. He did not succeed in taking it up with the procreative organ. If He had taken it up with the procreative organ, then one would have become satisfied by merely ejecting food.

उसे शिश्न से ग्रहण करने की चेष्टा की । शिश्न से ग्रहण न कर सका । यदि वह शिश्न से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का विसर्जन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता ॥९॥

तदपानेनाजिघृक्षत् तदावयत् सैषोऽन्नस्य ग्रहो यद्वायुरनायुर्वा एष यद्वायुः ॥१०॥

I-iii-10: He wanted to take it up with Apana. He caught it. This is the devourer of food. That vital energy which is well known as dependent of food for its subsistence is this vital energy (called Apana).

उसे अपान से ग्रहण करने की चेष्टा की । उसको ग्रहण कर लिया । यह ही अन्न का गृह है । जो वायु अन्न से सम्बन्धित आयु के लिए प्रसिद्द है यही वह है ॥१०॥

स ईक्षत कथं न्विदं मदृते स्यादिति स ईक्षत कतरेण प्रपद्या इति । स ईक्षत यदि वाचाऽभिव्याहृतं यदि प्राणेनाभिप्राणितं यदि चक्षुषा दृष्टं यदि श्रोत्रेण श्रुतं यदि त्वचा स्पृष्टं यदि मनसा ध्यातं यद्यपानेनाभ्यपानितं यदि शिश्नेन विसृष्टमथ कोऽहमिति ॥११॥

I-iii-11: He thought, "How indeed can it be there without Me?" He thought, "Through which of the two ways should I enter?" He thought, "If utterance is done by the organ of speech, smelling by the sense of smell, seeing by the eye, hearing by the ear, feeling by the sense of touch, thinking by the mind, the act of drawing in (or pressing down) by Apana, ejecting by the procreative organ, then who (or what) am I?"

उसने विचार किया - ‘यह मेरे बिना कैसे रहेगा’ । यदि वाणी द्वारा बोल लिया जाए, प्राण द्वारा प्राणन कर लिया जाय, यदि चक्षु द्वारा देख लिया जाय, यदि कान से सुन लिया जाय, यदि त्वचा से स्पर्श कर लिया जाय, यदि मन से चिन्तन कर लिया जाय, यदि अपान से भक्षण कर लिया जाय और शिश्न से विसर्जन कर लिया जाय, तब मैं कौन हुआ ? उसने इच्छा की - ‘किस मार्ग से प्रवेश करूँ’ ॥११॥

स एतमेव सीमानं विदर्यैतया द्वारा प्रापद्यत । सैषा विदृतिर्नाम द्वास्तदेतन्नाऽन्दनम् । तस्य त्रय आवसथास्त्रयः स्वप्ना अयमावसथोऽयमावसथोऽयमावसथ इति ॥१२॥

I-iii-12: Having split up this very end, He entered through this door. This entrance is known as vidriti (the chief entrance). Hence it is delightful. Of Him there are three abodes - three (states of) dream. This one is an abode, this one is an abode. This one is an abode.

उसने इसकी सीमा को विदीर्ण कर द्वार प्राप्त किया । वह यह द्वार ‘विद्रति’ नामवाला है । वही यह आनन्द देने वाला है । उसके तीन आश्रयस्थान ही तीन स्वप्न हैं । यही आश्रय है, यही आश्रय है, यही आश्रय है ॥१२॥

स जातो भूतान्यभिव्यैख्यत् किमिहान्यं वावदिषदिति ।स एतमेव पुरुषं ब्रह्म ततममपश्यत् । इदमदर्शनमिती ॥१३॥

I-iii-13: Being born, He manifested all the beings; for did He speak of (or know) anything else? He realised this very Purusha as Brahman, the most pervasive, thus: "I have realised this".

तब उस जन्म पाये हुए ने भूत-जगत को ग्रहण किया और कहा - ‘यहाँ दूसरा कौन है’ । उसने इस पुरुष को ही ब्रह्मरूप से देखा । ‘मैंने इसे देख लिया’ ॥१३॥

तस्मादिदन्द्रो नामेदन्द्रो ह वै नाम । तमिदन्द्रं सन्तमिंद्र इत्याचक्षते परोक्षेण । परोक्षप्रिया इव हि देवाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः ॥१४॥

I-iii-14: Therefore His name is Idandra. He is verily known as Idandra. Although He is Idandra, they call Him indirectly Indra; for the gods are verily fond of indirect names, the gods are verily fond of indirect names.

इसलिए वह इदन्द्र नाम वाला हुआ । इदन्द्र ही उसका नाम हैं। इदन्द्र होने पर भी उसे परोक्षरूप से इन्द्र ही पुकारते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं ॥१४॥


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AITAREYA UPANISHAD: First Chapter( Second Part)

ता एता देवताः सृष्टा अस्मिन्महत्यर्णवे प्रापतन् । तमशनापिपासाभ्यामन्ववार्जत् । ता एनमब्रुवन्नायतनं नः प्रजानीहि यस्मिन्प्रतिष्ठिता अन्नमदामेति ॥१॥

I-ii-1: These deities, that had been created, fell into this vast ocean. He subjected Him (i.e. Virat) to hunger and thirst. They said to Him (i.e. to the Creator), "Provide an abode for us, staying where we can eat food."

इस प्रकार सृजित ये सब देवता इस महान् समुद्र को प्राप्त होकर भूख और प्यास से संयुक्त कर दिए गए । वे उससे बोले - ऐसे आश्रयस्थान की व्यवस्था करें, जिसमें स्थित रहकर अन्न का भक्षण कर सकें ॥१॥

ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति । ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ॥२॥

I-ii-2: For them He (i.e. God) brought a cow. They said, "This one is not certainly adequate for us." For them He brought a horse. They said, "This one is not certainly adequate for us."

उनके लिए गौ लाये । उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पर्याप्त नही है । उनके लिए अश्व लाये । उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पर्याप्त नही है ॥२॥

ताभ्यः पुरुषमानयत्ता अब्रुवन् सुकृतं बतेति पुरुषो वाव सुकृतम् । ता अब्रवीद्यथायतनं प्रविशतेति ॥३॥

I-ii-3: For them He brought a man. They said "This one is well formed; man indeed is a creation of God Himself". To them He said, "Enter into your respective abodes".

उनके लिए पुरुष लाये । उन्होंने कहा यह बहुत सुन्दर बना है । निश्चय पुरुष ही सुन्दर रचना है । उसने कहा - ‘अपने-अपने आश्रयस्थान में प्रवेश कर जाओ’ ॥३॥

अग्निर्वाग्भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिकेप्राविशदादित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविशाद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचंप्राविशंश्चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशन्मृत्युरपानो भूत्वा नाभिं प्राविशदापोरेतो भूत्वा शिश्नं प्राविशन् ॥४॥

I-ii-4: Fire entered into the mouth taking the form of the organ of speech; Air entered into the nostrils assuming the form of the sense of smell; the Sun entered into the eyes as the sense of sight; the Directions entered into the ears by becoming the sense of hearing; the Herbs and Trees entered into the skin in the form of hair (i.e. the sense of touch); the Moon entered into the heart in the shape of the mind; Death entered into the navel in the form of Apana (i.e. the vital energy that presses down); Water entered into the limb of generation in the form of semen (i.e. the organ of procreation).

अग्नि वाक् होकर मुख में प्रवेश कर गया । वायु प्राण होकर नासिकारन्ध्रों में प्रवेश कर गया । सूर्य चक्षु होकर आँखों में प्रवेश कर गया । दिशा श्रोत्र होकर कानों में प्रवेश कर गया । ओषधि और वनस्पति रोम होकर त्वचा में प्रवेश कर गए । चन्द्रमा मन होकर हृदय में प्रवेश कर गया । मृत्यु अपान होकर नाभि में प्रवेश कर गया । जल रेतस् होकर शिश्न में प्रवेश कर गया ॥४॥

तमशनायापिपासे अब्रूतामावाभ्यामभिप्रजानीहीति ते अब्रवीदेतास्वेव वां देवतास्वाभजाम्येतासु भागिन्न्यौ करोमीति । तस्माद्यस्यै कस्यै च देवतायै हविर्गृह्यते भागिन्यावेवास्यामशनायापिपासे भवतः ॥५॥

I-ii-5: To Him Hunger and Thirst said, "Provide for us (some abode)." To them He said, "I provide your livelihood among these very gods; I make you share in their portions." Therefore when oblation is taken up for any deity whichsoever, Hunger and Thirst become verily sharers with that deity.

भूख-प्यास ने उससे कहा कि हमारे लिए भी व्यवस्था करें । वह बोला - ‘तुम्हें इन देवताओं में ही भाग दूँगा, इन्हीं का भागीदार बनाता हूँ’ । अतः जिस किसी देवता के लिए हवि ग्रहण की जाती है, उसमें भूख और प्यास दोनों ही भागीदार होती हैं ॥५॥

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AITAREYA UPANISHAD: First Chapter(First Part)

आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीन्नान्यत्किंचन मिषत् । स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति ॥१॥

I-i-1: In the beginning this was but the absolute Self alone. There was nothing else whatsoever that winked. He thought, "Let Me create the worlds."

सबसे पहले एकमात्र यह आत्मा ही था । उसके सिवा सक्रियरूप कोई भी न था । उसने इच्छा की - ‘लोकों का सृजन करूँ’ ॥१॥

स इमाँ ल्लोकानसृजत । अम्भो मरीचीर्मापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठाऽन्तरिक्षं मरीचयः । पृथिवी मरो या अधस्तात्त आपः ॥२॥

I-i-2: He created these world, viz. ambhas, marici, mara, apah. That which is beyond heaven is ambhas. Heaven is its support. The sky is marici. The earth is mara. The worlds that are below are the apah.

उसने इन लोकों का सृजन किया - अम्भ, मरीचि, मर और आप । देव से परे और द्यौ जिसकी प्रतिष्ठा है, वह ‘अम्भ’ है । अन्तरिक्ष ‘मरीचि’ है । पृथ्वी ‘मर’ है । जो नीचे स्थित है वह ‘आप’ है ॥२॥

स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति । सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्छयत् ॥३॥

I-i-3: He thought, "These then are the worlds. Let Me create the protectors of the worlds." Having gathered up a (lump of the) human form from the water itself, He gave shape to it.

उसने उन लोकों के लोकपालों का सृजन करने की इच्छा की । उसने जल से ही पुरुष निकालकर उसे मूर्तिमान किया ॥३॥

तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाऽण्डं मुखाद्वाग्वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतं नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतमक्षीभ्यां चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्रद्दिशस्त्वङ्निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्या अपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आपः ॥४॥

I-i-4: He deliberated with regard to Him (i.e. Virat of the human form). As He (i.e. Virat) was being deliberated on, His (i.e. Virat'') mouth parted, just as an egg does. From the mouth emerged speech; from speech came Fire. The nostrils parted; from the nostrils came out the sense of smell; from the sense of smell came Vayu (Air). The two eyes parted; from the eyes emerged the sense of sight; from the sense of sight came the Sun. The two ears parted; from the ears came the sense of hearing; from the sense of hearing came the Directions. The skin emerged; from the skin came out hair (i.e. the sense of touch associated with hair); from the sense of touch came the Herbs and Trees. The heart took shape; from the heart issued the internal organ (mind); from the internal organ came the Moon. The navel parted; from the navel came out the organ of ejection; from the organ of ejection issued Death. The seat of the procreative organ parted; from that came the procreative organ; from the procreative organ came out Water.

उसने सँकल्परूप तप किया । उस तप से अण्डे के सामान मुख उत्पन्न हुआ । मुख से वाक् और वाक्-इन्द्रिय से अग्नि उत्पन्न हुआ । नासिकारन्ध्र प्रकट हुए, नासिकारन्ध्रों से प्राण और प्राण से वायु प्रकट हुआ । आखें प्रकट हुईं, आँखों से चक्षु-इन्द्रिय और चक्षु से सूर्य प्रकट हुआ । कर्ण प्रकट हुए, कर्णों से श्रोत्र-इन्द्रिय और श्रोत्र से दिशाएँ प्रकट हुईं । त्वचा प्रकट हुई, त्वचा से रोम और रोमों से ओषधि एवं वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं । हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन और मन से चन्द्रमा प्रकट हुआ । नाभि प्रकट हुई, नाभि से अपान और अपान से मृत्यु प्रकट हुआ । शिश्न प्रकट हुआ तथा शिश्न से रेतस् और रेतस् से आप उत्पन्न हुआ ॥४॥

Friday, July 14, 2023

PRASHNA UPANISHAD: Sixth Question( Prashna)

अथ हैनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ । भगवन् हिरण्यनाभः कौसल्यो राजपुत्रो मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत । षोडशकलं भारद्वाज पुरुषं वेत्थ । तमहं कुमारम्ब्रुवं नाहमिमं वेद । यध्यहमिममवेदिषं कथं ते नावक्ष्यमिति । समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति तस्मान्नार्हम्यनृतं वक्तुम् । स तूष्णीं रथमारुह्य प्रवव्राज । तं त्वा पृच्छामि क्वासौ पुरुष इति ॥१॥

VI-1: Then Sukesa, son of Bharadvaja, asked him, "Venerable sir, Hiranyanabha, a prince of Kosala, approached me and put this question, 'Bharadvaja, do you know the Purusha possessed of sixteen limbs?' To that prince I said, 'I do not know him. Had I known him why should I not have told you? Anyone who utters a falsehood dries up root and all. Therefore I cannot afford to utter a falsehood. Silently he went away riding on the chariot. Of that Purusha I ask you, 'Where does He exist?'"

अब भरद्वाज पुत्र सुकेशा ने पूछा - भगवन् ! कौसलदेशीय राजपुत्र हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछा था - ‘भरद्वाज ! सोलह कलाओं वाले वाले पुरुष को जानते हो ?’ उस राजकुमार से मैंने कहा - ‘मैं इसे नही जानता, यदि जानता तो तुझे क्यों नहीं बताता । वह जो झूठ बोलता है वह मूलसहित सूख जाता है । अतः मैं झूठ बोलने में समर्थ नहीं हूँ ।’ तब वह चुपचाप रथ पर सवार होकर चला गया । वही मैं आपसे पूछता हूँ कि ऐसा पुरुष कहाँ है ?॥१॥

तस्मै स होवाच । इहईवान्तःशरीरे सोभ्य स पुरुषो यस्मिन्नताः षोडशकलाः प्रभवन्तीति ॥२॥

VI-2: To him he (Pippalada) said: O amiable one, here itself inside the body is that Purusha in whom originate these sixteen digits (or limbs).

वे उससे बोले - हे सौम्य ! यहाँ शरीर के भीतर ही है, वह पुरुष जिसमें इन सोलह कलाओं का प्रादुर्भाव होता है ॥२॥

स ईक्षाचक्रे । कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन्वा प्रतिष्टिते प्रतिष्टस्यामीति ॥३॥

VI-3: He deliberated: "As a result of whose departure shall I rise up? And as a result of whose continuance shall I remain established?"

उसने विचार किया कि किसके उत्क्रमण करने से मैं भी उत्क्रमण को प्राप्त होऊँगा और किसके स्थित होने पर मैं भी स्थित होऊँगा ?॥३॥

स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनः । अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च ॥४॥

VI-4: He created Prana; from Prana (He created) faith, space, air, fire, water, earth, organs, mind, food; from food (He created) vigour, self-control, mantras, rites, worlds and name in the worlds.

उसने प्राण का सृजन किया । फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन, और अन्न एवं अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोक तथा लोकों में नाम को उत्पन्न किया ॥४॥

स यथेमा नध्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते तासां नामरुपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते । एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते चासां नामरुपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकः ॥५॥

VI-5: The illustration is this: Just as these flowing rivers that have the sea as their goal, get absorbed after reaching the sea, and their names and forms are destroyed, and they are called merely the sea, so also these sixteen parts (i.e. constituents) of the all-seeing Purusha, that have Purusha as their goal, disappear on reaching Purusha, when their names and forms are destroyed and they are simply called Purusha. Such a man of realisation becomes free from the parts and is immortal. On this point there occurs this verse:

जिस प्रकार समुद्र की ओर बहती हुई ये नदियाँ समुद्र में पहुँचकर अस्त हो जाती हैं, उनके नाम- रूप नष्ट हो जाते हैं, और फिर वे ‘समुद्र’ कहकर ही पुकारी जाती हैं । इसी प्रकार इस सर्वद्रष्टा की ये सोलह कलाएँ, जिनका वह पुरुष ही अधिष्ठान है, उस पुरुष को प्राप्त हो उसी में लीं हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘पुरुष’ कहकर ही पुकारी जाती हैं । ऐसा वह कलारहित और अमर है । इस प्रकार यह श्लोक है ॥५॥

अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्टिताः । तं वेध्यं पुरुषं वेद यथ मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥६॥

VI-6: You should know that Purusha who is worthy to be known and in whom are transfixed the parts like spokes in the nave of a chariot wheel, so that death may not afflict you anywhere.

जिस प्रकार रथ की नाभि में अरे स्थित होते हैं, उसी प्रकार ये सभी कलाएँ जिसमें प्रतिष्ठित हैं, वही पुरुष जानने योग्य है, जिससे कि मृत्यु तुम्हें कष्ट न पहुँचा सके ॥६॥

तान् होवाचैतावदेवाहमेतत् परं ब्रह्म वेद । नातः परमस्तीति ॥७॥

VI-7: To them he said, "I know this supreme Brahman thus far only. Beyond this there is nothing."

वे उन सबसे बोले - इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ । इसके पर कुछ नही है ॥७॥

ते तमर्चयन्तस्त्वं हि नः पिता योऽस्माकमविध्यायाः परं परं तारयसीति । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥८॥

VI-8: While worshipping him they said, "You indeed are our father who have ferried us across nescience to the other shore. Salutation to the great seers. Salutation to the great seers."

तब उन्होंने उनकी अर्चना करते हुए कहा - आप हमारे पिता हैं, जिन्होंने अविद्या के पार पहुँचा दिया है । आप परमऋषि को नमस्कार है परमऋषि को नमस्कार है ॥८॥

PRASHNA UPANISHAD: Fifth Question(Prashna)

अथ हैनं सैब्यः सत्यकामः पप्रच्छ । स यो ह वै तभ्दगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तमोङ्कारमभिध्यायीत । कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति । तस्मै स होवाच ॥१॥

V-1: Next, Satyakama, son of Sibi, asked him, "O venerable sir, which world does he really win thereby, who among men, intently meditates on Om in that wonderful way till death?" To him he said:

अब शिबिपुत्र सत्यकाम ने उनसे पूछा - भगवन् ! मनुष्यों में जो कोई भी मृत्युपर्यन्त उस ओंकार का ध्यान करता है, उससे वह किन लोकों को जीत लेता है ?॥१॥

एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः । तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति ॥२॥

V-2: O Satyakama, this very Brahman, that is (known as) the inferior and superior, is but this Om. Therefore the illumined soul attains either of the two through this one means alone.

वे उससे बोले - हे सत्यकाम ! यह ओंकार ही वह पर और अपर ब्रह्म है । विद्वान् पुरुष इसी के आश्रय से दोनों में से किसी एक को प्राप्त हो जाता है ॥२॥

स यध्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव संवेदितस्तूर्णमेव जगत्याभिसम्पध्यते । तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानमनुभवति ॥३॥

V-3: Should he meditate on Om as consisting of one letter he becomes enlightened even by that and attains a human birth on the earth. The Rik mantras lead him to the human birth. Being endued there with self-control, continence, and faith he experiences greatness.

वह यदि ओंकार की एक मात्रा का ध्यान करता है तो उससे संवेदना को प्राप्त कर शीघ्र ही जगत में उत्पन्न होता है । उसे ऋचाएँ मनुष्य लोक में ले जाती हैं । वहाँ वह तप, ब्रह्मचर्य, और श्रद्धा से संपन्न होकर महिमा का अनुभव करता है ॥३॥

अथ यदि द्विमात्रेण मनसि सम्पध्यते सोऽन्तरिक्षं यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकम् । स सोमलोके विभुतिमनुभूय पुनरावर्तते ॥४॥

V-4: Now gain, if he meditates on Om with the help of the second letter, he becomes identified with the mind. By the Yajur mantras he is lifted to the intermediate space, the world of the Moon. Having experienced greatness in the lunar world, he turns round again.

यदि वह दो मात्राओं की मन से उपासना करता है, तो वह अन्तरिक्ष को प्राप्त होता है । उसे यजुःश्रुतियाँ सोमलोक में ले जाती हैं । सोमलोक की विभूतियों का अनुभव कर वह पुनः लौट आता है ॥४॥

यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः । यथा पादोदरस्त्वचा विनिर्भुच्यत एवं ह वै स पाप्मना विनिर्भुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं स एतस्माज्जीवघनात् परात्परं पुरुशयं पुरुषमीक्षते । तदेतौ श्लोकौ भवतः ॥५॥

V-5: Again, any one who meditates on the supreme Purusha with the help of this very syllable Om, as possessed of three letters, becomes unified in the Sun, consisting of light. As a snake becomes freed from its Slough, exactly in a similar way, he becomes freed from sin, and he is lifted up to the world of Brahma (Hiranyagarbha) by the Sama mantras. From this total mass of creatures (that Hiranyagarbha is) he sees the supreme Purusha that penetrates every being and is higher than the higher One (viz. Hiranyagarbha). Bearing on this, there occur two verses:

पुनः जो तीन मात्राओं वाले इस ‘ओम्’ द्वारा परमपुरुष का ध्यान करता है वह तेजोमय सूर्यलोक को प्राप्त होता है । जिस प्रकार सर्प केंचुली से निकल आता है, उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है । वह सामश्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है । वह इस जीवनघन से परे उस हृदयस्थ परम पुरुष का साक्षात करता है । इस सम्बन्ध में ये श्लोक हैं ॥५॥

तिस्रो मात्रा मृअत्युमत्यः प्रयुक्ता अन्योन्यसक्ताः अनविप्रयुक्ताः । क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु सम्यक् प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः ॥६॥

V-6: The three letters (by themselves) are within the range of death. But if they are closely joined, one to another, are not divergently applied to different objects, and are applied to the three courses of action - external, internal and intermediate - that are properly resorted to, then the man of enlightenment does not shake (i.e. remains undisturbed).

तीनों ही मात्राएँ मृत्यु से युक्त है, एक दूसरे से संयुक्त रहकर प्रयुक्त की गयी हों या प्रथक-प्रथक करके प्रयुक्त की गयी हों । बाह्य, आभ्यान्तर और मध्य क्रियाओं में उनका सम्यक प्रयोग किया जाने पर ज्ञानी विचलित नही होता ॥६॥

ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं सामभिर्यत् तत् कवयो वेदयन्ते । तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान् यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति ॥७॥

V-7: The intelligent know this world that is attainable by the Rik mantras, the intermediate space achievable by the Yajur mantras, and that which is reached by the Sama mantras. The enlightened man attains that (threefold) world through Om alone; and through Om as an aid, he reaches that also which is the supreme Reality that is quiet and beyond old age, death and fear.

ऋक् द्वारा इस लोक को, यजुः द्वारा अंतरिक्ष को और साम द्वारा उस लोक को ले जाया जाता है जिसे ज्ञानी पुरुष जानते हैं । उस ओंकार के आलम्बन द्वारा ही विद्वान् उसे पा लेता है, वह जो शान्त, जरारहित, मृत्युरहित, भयरहित और सर्वश्रेष्ठ है ॥७॥

PRASHNA UPANISHAD: Fourth Question(Prashna)

अथ हैनं सौर्यायणि गार्ग्यः पप्रच्छ । भगवन्नेतस्मिन् पुरुषे कानि स्वपन्ति कान्यस्मिञ्जाग्रति कतर एष देवः स्वप्नान् पश्यति कस्यैतत् सुखं भवति कस्मिन्नु सर्वे सम्प्रतिष्टिता भवन्तीति ॥१॥

IV-1: Then the grandson of Surya, born of the family of Garga, asked him, "O adorable sir, which are the organs that go to sleep in this person? Which keep awake in him? Which is the deity who experiences dream? To whom occurs this happiness? In whom do all get merged?

अब गर्गगोत्रीय सौर्यायणी ने उनसे पूछा - भगवन् इस पुरुष में कौन सोता है ? कौन जागता है ? कौन यह देवता स्वप्नों को देखता है ? यह सुख किसके द्वारा अनुभव होता है ? यह सब किसमें समानरूप से प्रतिष्ठित रहता है ? ॥१॥
तस्मै स होवच । यथ गार्ग्य मरीचयोऽर्कस्यास्तं गच्छतः सर्वा एतस्मिंस्तेजोमण्डल एकीभवन्ति । ताः पुनः पुनरुदयतः प्रचरन्त्येवं ह वै तत् सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति तेन तर्ह्येष पुरुषो न शृणोति न पश्यति न जिघ्रति न रसयते न स्पृशते नाभिवदते नादत्ते नानन्दयते न विसृजते नेयायते स्वपितीत्याचक्षते ॥२॥

IV-2: To him he said, O Gargya, just as all the rays of the setting sun become unified in this orb of light, and they disperse from the sun as it rises up again, similarly all that becomes unified in the high deity, the mind. Hence this person does not then hear, does not see, does not smell, does not taste, does not touch, does not speak, does not grasp, does not enjoy, does not eject, does not move. People say, "He is sleeping."

वे उससे बोले - हे गार्ग्य ! जिस प्रकार अस्त होते हुए सूर्य की किरणें उस तेजोमण्डल में ही एकत्रित हो जाती हैं तथा उसके उदय होने पर पुनः फैल जाती हैं । उसी प्रकार ये सभी इन्द्रियाँ उस परदेव मन में एकीभाव को प्राप्त हो जाती हैं । उस समय वह पुरुष न सुनता है, न देखता है, न सूँघता है, न स्वाद लेता है, न स्पर्श करता है, न बोलता है, न ग्रहण करता है, न आनन्दित होता है, न मलोत्सर्ग करता है, न ही कोई चेष्टा करता है । तब उसे ‘सो रहा है’ ऐसा कहते हैं ॥२॥
प्राणाग्रय एवैतस्मिन् पुरे जाग्रति । गार्हपत्यो ह वा एषोऽपानो व्यानोऽन्वाहार्यपचनो यद्गार्हपत्यात् प्रणीयते प्रणयनादाहवनीयः प्राणः ॥३॥

IV-3: It is the fires (i.e. the functions resembling fire) of Prana that really keep awake in this city of the body. That which is this Apana really resembles the Garhapatya fire, Vyana resembles the fire, Anvaharyapacana. Since the Ahavaniya fire is obtained from Garhapatya, which is the former's source of extraction, therefore Prana conforms to Ahavaniya (because of its issuing out of Apana).

इस शरीररूपी नगर में प्राणाग्नियाँ ही जागती रहती हैं । यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है । व्यान अन्वाहार्य पचन अग्नि है । गार्हपत्य अग्नि के द्वारा ही प्रणयन के लिए वह आहवनीय प्राण ले जाया जाता है ॥३॥
यदुच्छ्वासनिःश्वासावेतावाहुती समं नयतीति स समानः । मनो ह वाव यजमानः । इष्टफलमेवोदानः । स एनं यजमानमहरहर्ब्रह्म गमयति ॥४॥

IV-4: Samana is the priest called Hota, because it strikes a balance between exhalation and inhalation which are but (comparable to) two oblations. The mind is verily the sacrificer. The desired fruit Udana, which leads this sacrificer every day to Brahman.

उच्छ्वास और निःश्वास ये दोनों ही आहुतियाँ हैं । आहुति को समभाव से पहुँचाने वाला समान है । यह मन ही यजमान है । इष्टफल ही उदान है । यह उदान ही इस यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के समीप ले जाता है ॥४॥
अत्रैष देवः स्वप्ने महिमानमनुभवति । यद्दृष्टं दृष्टमनुपश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनुशृणोति देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च स्च्चासच्च सर्वं पश्यति सर्वः पस्यति ॥५॥

IV-5: In this dream state this deity (i.e. the mind) experiences greatness. Whatever was seen, it sees again; whatever was heard, it hears again; whatever was perceived in the different places and directions, it experiences again and again; it perceives all by becoming all that was seen or not seen, heard or not heard, perceived or not perceived, and whatever is real or unreal.

इस स्वप्नावस्था में यह देव् अपनी महिमा का अनुभव करता है । देखे-देखे हुए को पुनः देखता है । सुनी-सुनी बातों को पुनः सुनता है । देश-दिशाओं में अनुभव किये हुए को पुनः-पुनः अनुभव करता है । देखे हुए, न देखे हुए को, सुने हुए, न सुने हुए को, अनुभव किये हुए और न अनुभव किये हुए को भी, सत् और असत् - सबको देखता है और सर्वरूप होकर भी देखता है ॥५॥
स यदा तेजसाऽभिभूतो भवति । अत्रैष देवः स्वप्नान्न पश्यत्यथ यदैतस्मिञ्शरीर एतत्सुखं भवति ॥६॥

IV-6: When that deity, (the mind), becomes overwhelmed by (solar) rays (called bile), then in this state the deity does not see dreams. Then, all that time, there occurs this kind of happiness in this body.

जब मन तेज से अभिभूत हो जाता है, तब यह देव स्वप्न नहीं देखता । उस समय इस शरीर में वह सुख को प्राप्त होता है ॥६॥
स यथा सोभ्य वयांसि वसोवृक्षं सम्प्रतिष्ठन्ते । एवं ह वै तत् सर्वं पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥७॥

IV-7: To illustrate the point: As the birds, O good looking one, proceed towards the tree that provides lodging, just so all these proceed to the supreme Self.

हे सौम्य ! जिस प्रकार पक्षी अपने निवास वृक्ष पर जाकर बैठते हैं । उसी प्रकार वे सब भी उस श्रेष्ठ आत्मा में स्थित हो जाते है ॥७॥
पृथिवी च पृथिवीमात्रा चापश्चापोमात्रा च तेजश्च तेजोमात्रा च वायुश्च वायुमात्रा चाकाशश्चाकाशमात्रा च चक्षुश्च द्रष्टव्यं च श्रोत्रं च श्रोतव्यं च ग्राणं च घ्रातव्यं च रसश्च रसयितव्यं च त्वक्च स्पर्शयितव्यं च वाक्च वक्तव्यं च हस्तौ चादातव्यं चोपस्थश्चानन्दयितव्यं च पायुश्च विसर्जयितव्यं च यादौ च गन्तव्यं च मनश्च मन्तव्यं च बुद्धिश्च बोद्धिव्यं चाहङ्कारश्चाहङ्कर्तव्यं च चित्तं च चेतयितव्यं च तेजश्च विद्योतयितव्यं च प्राणश्च विद्यारयितव्यं च ॥८॥

IV-8: Earth and the rudiment of earth, water and the rudiment of water, fire and the rudiment of fire, space and the rudiment of space, the organ and object of vision, the organ and object of hearing, the organ and object of smell, the organ and object of taste, the organ and object of touch, the organ and content of speech, the hands and the object grasped, sex and enjoyment, the organ of excretion and the excreta, the feet and the space trodden, the mind and the content of thought, understanding and the content of understanding, egoism and the content of egoism, awareness and the content of awareness, the shining skin and the object revealed by that, Prana and all that has to be held by Prana.

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और उनके तन्मात्र - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द भी । चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, त्वचा और इनसे सम्बन्धित विषय भी । वाक्, हस्त, उपस्थ, पायु, पाद और इनसे सम्बन्धित क्रियाएँ भी । मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त, तेज और उनसे सम्बन्धित विषय भी । प्राण और प्राण द्वारा धारणीय भी ॥८॥
एष हि द्रष्ट स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः । स परेऽक्षर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥९॥

IV-9: And this one is the seer, feeler, hearer, smeller, taster, thinker, ascertainer, doer - the Purusha (pervading the body and senses), that is a knower by nature. This becomes wholly established in the supreme, immutable Self.

यही द्रष्टा, स्पृष्टा, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता, बोद्धा, कर्ता और विज्ञानात्मा पुरुष है । वह पर-अक्षर आत्मा में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है ॥९॥
परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते स यो ह वै तदच्छायमशरीरम्लोहितं शुभ्रमक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य । स सर्वज्ञः सर्वो भवति । तदेष श्लोकः ॥१०॥

IV-10: He who realises that shadowless, bodiless, colorless, pure, Immutable attains the supreme Immutable Itself. O amiable one, he, again, who realises, becomes omniscient and all. Illustrative of this there occurs this verse:

उस छायारहित, अशरीरी, अलोहित, शुभ्र, अक्षर, को जो पुरुष जानता है वह उस पर-अक्षर को ही प्राप्त हो जाता है । हे सौम्य ! वह सर्वज्ञ और सर्वरूप हो जाता है । ऐसा यह श्लोक है ॥१०॥
विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः प्राणा भुतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति ॥११॥

IV-11: O amiable one, he becomes all-knowing and enters into all, who knows that Immutable wherein merges the cognising Self - (the Purusha who is naturally a knower) - as also do the organs and the elements together with all the deities.

हे सौम्य ! जिसमें विज्ञानस्वरूप आत्मा सहित समस्त देव, प्राण और भूत सम्यक प्रकार से प्रतिष्ठित होते हैं, उस अविनाशी को जो जान लेता है वह सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप में ही प्रवेश कर जाता है ॥११॥

PRASHNA UPANISHAD: Third Question(Prashna)

अथ हैनं कौशल्यष्चाश्वलायनः पप्रच्छ । भगवन् कुत एष प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्शरीर आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रतिष्ठते केनोत्क्रमते कथं बह्यमभिधते कथमध्यात्ममिति ॥१॥

III-1: Then Kausalya, son of Asvala, asked him, "O venerable sir, from where is this Prana born? How does He come into this body? How again does He dwell by dividing Himself? How does he depart? How does He support the external things and how the physical?"

अब कौसलदेश के आश्वलायन ने उनसे पूछा - भगवन् यह प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है ? इस शरीर में कैसे आता है ? तथा स्वयं को विभक्त करके किस प्रकार स्थित होता है ? किस कारण उत्क्रमण करता है तथा किस प्रकार बाह्य और अन्तरजगत को धारण करता है ?॥१॥

तस्मै स होउवाचातिप्रष्चान् पृच्छसि ब्रह्मिष्ठोऽसीति तस्मात्तेऽहं ब्रवीमि ॥२॥

III-2: To him he said: You are putting super-normal questions, since you are pre-eminently a knower of Brahman. Hence I speak to you.

वे उससे बोले - ‘तू अतिप्रश्न पूछता है । तू ब्रह्म में श्रद्धा रखने वाला है अतः मैं तेरे सभी प्रश्नों का उत्तर दूँगा’ ॥२॥

आत्मन एष प्राणो जायते । यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे ॥३॥

III-3: From the Self is born this Prana. Just as there can be shadow when a man is there, so this Prana is fixed on the self. He comes to this body owing to the actions of the mind.

यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है । जिस प्रकार पुरुष से उसकी छाया उत्पन्न होती है उसी प्रकार प्राण आत्मा के ही आश्रित है । यह मन के द्वारा किये गए संकल्पों से इस शरीर में आता है ॥३॥

यथा सम्रादेवाधिकृतान् विनियुङ्क्ते । एतन् ग्रामानोतान् ग्रामानधितिष्टस्वेत्येवमेवैष प्राण इतरान् प्राणान् पृथक् पृथगेव सन्निधत्ते ॥४॥

III-4: As it is the king alone who employs the officers saying, "Rule over these villages, and those ones", just so Prana engages the other organs separately.

जिस भाँति सम्राट ही ‘इस ग्राम में तुम रहो, इस ग्राम में तुम रहो’ - इस प्रकार अधिकारियों को नियुक्त करता है, उसी प्रकार यह मुख्य प्राण ही दूसरे प्राणों को पृथक-पृथक नियुक्त करता है ॥४॥

पायूपस्थेऽपानं चक्षुःश्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणः स्वयं प्रातिष्टते मध्ये तु समानः । एष ह्येतद्धुतमन्नं समं नयति तस्मादेताः सप्तार्चिषो भवन्ति ॥५॥

III-5: He places Apana in the two lower apertures. Prana Himself, issuing out of the mouth and nostrils, resides in the eyes and ears. In the middle, however, is Samana, for this one distributes equally all this food that is eaten. From that issue out these seven flames.

पायु और उपस्थ में ‘अपान’ को, मुख-नासिका-चक्षु-श्रोत्र में ‘प्राण’ स्वयं को और मध्य भाग में ‘समान’ को प्रतिष्ठित करता है । यह (समान) ही ग्रहण किये गए अन्न को समभाव से शरीर में वितरित करता है । उससे ही ये सात ज्वालाएँ उत्पन्न होती हैं ॥५॥

हृदि ह्येष आत्मा । अत्रैतदेकशतं नाडीनं तासां शतं शतमेकैकस्या द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखानाडीसहस्राणि भवन्त्यासु व्यानश्चरति ॥६॥

III-6: This self (i.e. the subtle body) is surely in the heart. There are a hundred and one of the (chief) nerves. Each of them has a hundred (division). Each branch is divided into seventy-two thousand sub-branches. Among them moves Vyana.

यह आत्मा हृदय में है । इस हृदयदेश में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं । उनमें से एक-एक की सौ-सौ शाखाएँ हैं और बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखा नाड़ियाँ होती है । इनमें ‘व्यान’ संचार करता है ॥६॥

अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम् ॥७॥

III-7: Now then Udana, when it is in its upward trend, leads to a virtuous world as a result of virtue, to a sinful world as a result of sin and to the human world as a result of both.

इनमे एक ऊपर की ओर है, जिसमें गमन करने वाला ‘उदान’ पुण्य द्वारा पुण्यलोक में और पाप के द्वारा पाप लोक में ले जाता है और दोनों के उभय फलस्वरूप मनुष्यलोक में ॥७॥

आदित्यो ह वै बाह्यः प्राण उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णानः । पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्य अपानमवष्टभ्यान्तरा यदाकाशः स समानो वायुर्व्यानः ॥८॥

III-8: The sun is indeed the external Prana. It rises up favouring this Prana in the eye. That deity, that is in the earth, favours by attracting Apana in a human being. The space (i.e. air), that is within, is Samana. The (common) air is Vyana.

आदित्य ही वह बाह्य प्राण है जो चक्षु के प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है । पृथ्वी में जो देवता है वही पुरुष के अपान को आकर्षण किये हुए है । इन दोनों के बीच में यह जो आकाश है वह समान है और वायु ही व्यान है ॥८॥

तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशान्ततेजाः । पुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि सम्पध्यमानैः ॥९॥

III-9: That which if well known as luminosity, is Udana. Therefore, one who gets his light extinguished, attains rebirth together with the organs that enter into (his) mind.

तेज ही वह उदान है । इसलिए जिसका तेज शान्त हो जाता है, वह मन में लीन हुई इन्द्रियों सहित पुनर्जन्म को प्राप्त होता है ॥९॥

यच्चित्तस्तेनैष प्राणमायाति । प्राणस्तेजसा युक्तः सहात्मना तथासङ्कल्पितं लोकं नयति ॥१०॥

III-10: Together with whatever thought he had (at the time of death), he enters into Prana. Prana, in combination with Udana and in association with the soul, leads him to the world desired by him.

जैसा चित्त होता है, उस संकल्प के साथ ही मुख्य प्राण को प्राप्त हो जाता है । यह प्राण तेज से युक्त हो आत्मा सहित संकल्पानुसार भिन्न-भिन्न लोकों को ले जाता है ॥१०॥

य एवं विद्वान् प्राणं वेद न हास्य प्रजा हीयतेऽमृतो भवति तदेषः श्लोकः ॥११॥

III-11: The line of progeny of any man of knowledge who knows Prana thus sustains no break. He becomes immortal. Pertaining to this there occurs this mantra.

जो विद्वान् प्राण को इस प्रकार जानता है उसकी प्रजा नष्ट नहीं होती । वह अमर हो जाता है । ऐसा यह श्लोक है ॥११॥

उत्पत्तिमायतिं स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा । अध्यात्मं चैव प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते विज्ञायामृतमश्नुत इति ॥१२॥

III-12: Having known the origin, coming, lodgment and fivefold over lordship and the physical existence of Prana, one achieves immortality. Having known, one achieves immortality.

प्राण की उत्पत्ति, आगम, स्थान, विभुत्व और आध्यात्मिकता - इन पाँचों प्रकार से जानकर अमृत का अनुभव करता है, अमृत का अनुभव करता है ॥१२॥

AMRITBINDU UPANISHAD

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च । अशुद्धं कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम्॥१॥ 1. The mind is chiefly spoken of as of...